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कबीर का रहयवाद 1 जीवन पंत शिण संथान, दिली ववाल हदी डी सी -1 सेमेटर-I न प- III, आहदकालीन और भतिकालीन काय इकाई-II अयाय: िबन : कबीर का रहयवाद अयाय लेखक: नीरज कॉलेज / ववभाग : भारिी कॉलेज, हदली ववववयालय

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  • कबीर का रहस्यवाद

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    हहिंदी डी सी -1 सेमेस्टर-I

    प्रश्न पत्र- III, आहदकालीन और भक्तिकालीन काव्य इकाई-II

    अध्याय: कुिबुन : कबीर का रहस्यवाद अध्याय लेखक: नीरज

    कॉलेज / ववभाग : भारिी कॉलेज, हदल्ली ववश्वववद्यालय

  • कबीर का रहस्यवाद

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    कबीर का रहस्यवाद

    अनादि काल से मानव में सशृ्टि के सम्बन्ध में श्जज्ञासा प्रधान वशृ्तत रही है. इसी श्जज्ञासा

    वशृ्तत के कारण सशृ्टि और उसकी रचना प्रक्रिर्या को जानने के शलए जब उसने अशिव्र्यश्तत का

    माध्र्यम खोजा तो वह रहस्र्यवाि के रूप में पररणत हुआ तर्योंक्रक मनटुर्य अपने तकक , वववेक और

    उपलब्ध िब्ि िश्तत के आधार पर अपनी िावनाएँ और अनिुतूतर्यों को स्पटि करने में सफल नहीं

    होता, तब वह रहस्र्यवाि का सहारा लेता है. र्यह रहस्र्यवाि अशिव्र्यश्तत की सीमा और िावों की

    सघनता से जन्म लेता है.

    चचत्र- सतं कबीर, सािार (ववक्रकपीडिर्या)

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    %E0%A4%B0#.U00LRfmSySo :

    िरअसल रहस्र्यवाि मानव जीवन की वह अतंः उद्वेशलत अशिव्र्यश्तत है श्जसमें िावना के

    धरातल पर ईववर को पहचानकर उनमे पणूक समवपकत हो जाए. अशिप्रार्य र्यह है क्रक प्रकृतत के कण-

    कण में उस अज्ञात सतता के स्वरूपोद्घािन सम्बन्धी िाव व्र्यतत करना आदि सादहतर्य-शे्रत्र में

    रहस्र्यवािी काव्र्य काव्र्य कहलाता है. रहस्र्यवाि की पररिाषा िेत ेहुए आचार्यक रामचदं्र ितुल ने कहा है-

    “चचतंन के शे्रत्र में जो अद्वतैवाि है िावना के शे्रत्र में वही रहस्र्यवाि है.” जबक्रक िॉ. रामकुमार वमाक

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  • कबीर का रहस्यवाद

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    जीवातमा और परमातमा के िावातमक सम्बन्ध को रहस्र्यवाि मानत ेहैं – “रहस्र्यवाि जीवातमा की उस

    अन्ततनकदहत प्रवशृ्तत का प्रकािन है श्जसमे वह दिव्र्य और अलौक्रकक िश्तत से अपना िांत और

    तनवचल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है, और र्यह सम्बन्ध र्यहाँ तक बढ़ता है क्रक िोनों में कुछ अतंर नहीं

    रह जाता”

    जर्यिकंर प्रसाि के िब्िों में “काव्र्य में आतमा की सकंल्पनातमक मूल अनुिूतत की मुख्र्य

    धारा रहस्र्यवाि है.” िॉ गोववन्ि त्रत्रगणुार्यत रहस्र्यवाि को ज्ञान और िश्तत से तनतांत शिन्न मानत े

    हुए कहत ेहैं- “जब साधक िावना के सहारे अशिव्र्यश्तत सतता की रहस्र्यमर्यी अनुिूततर्यों को वाणी के

    द्वारा िब्िमर्य चचत्रों में सजाकर रखने लगता है तिी सादहतर्य में रहस्र्यवाि की सटृिी होती है” इसी

    आध्र्याश्तमक अनिुतूतर्यों का चरम सौंिर्यक िश्ततकाल में कबीर अपने प्रबल िावों, उद्गारों को व्र्यतत

    करने में असमथक हो जात ेहैं तो अस्पटि प्रतीकों, धुधले िब्िों और िाषा की नई िचंगमा का इस्तमेाल

    करत ेहै श्जससे उनकी कववता रहस्र्यवाि का स्वरूप ग्रहण करती है. श्जस प्रकार कबीर के र्यहाँ सीम-

    असीम का ववरोधी नहीं है, रूप-अरूप का ववरोधी नही ंहै उसी प्रकार उनके र्यहाँ रहस्र्य र्यथाथक ववरोधी

    नहीं है. कबीर का रहस्र्य मध्र्यकालीन िारतीर्य समाज का स्वश्ननल कें द्र- (fantasy) है. प्रोफेसर

    इरफ़ान हबीब इस सन्ििक में शलखत ेिी हैं-

    “वास्तव में कबीर ऐसे एकेववरवाि की स्थापना करत े है श्जसमे ईववर के प्रतत पूणक समपकण तो है

    परन्तु सारे धाशमकक अनुटठानों को नकारा गर्या है और इस तरह वह कट्टर इस्लाम से बहुत आगे

    तनकल गर्या है. कबीर के शलए ईववर से एकाकार होने का अथक मनुटर्यों का एक होना है और इसशलए

    वहाँ िुद्धता और छुआछुत की प्रथा को सम्पूणक रूप से, स्पटि िब्िों में नकारा गर्या है तथा सब तरह

    के अनुटठानों को अस्वीकार क्रकर्या गर्या है.”

    र्यह उनका ऐसा कश्ल्पत इच्छा लोक है जो आज सिंव नहीं है लके्रकन कवव की दृटिी में किी सिंव

    होगा. कबीर ने स्वर्य ंकहा है-

    “हद्द चले सो मानवा, बेहद्द चले सो साध

    हद्द-बेहद्द िोनों तज,े ताको मना अकाि.”

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    प्रतरे्यक काल का कवव अपने समाज के कुरूप वास्तववकता के ववरोध में एक आििक कल्पना लोक

    रचता है, र्यही कल्पना लोक रहस्र्य कहलाता है. तलुसी का “राम राज्र्य”, जार्यसी का “शसहंावलोक”,

    सरूिास का “ब्रजमिंल” और कबीर का “अनतं” इसी रहस्र्यवाि की अशिव्र्यश्तत करत ेहैं. क्रकन्त ुकबीर

    का र्यह कल्पना लोक क्रकसी वार्यवी ववचारों का प्रततफलन नहीं है, वरन “कबीर का चचतंन, उनकी

    कववता अथवा उनकी साधना इतनी ववराि आर्यामों वाली है क्रक वह आतमबोध और जगत-बोध जैस े

    वविाजनों को स्वीकार नहीं करती. उनके र्यहाँ िोनों ही एकाकार है. उनकी िश्तत िी वस्तुतः

    र्योगसाधनापरक िश्तत नही,ं क्रक जैसा प्रार्यः उसे समझा जाता है. वह ठेठ जीवन के बीच स ेरास्ता

    बना लेती है.” र्यही कबीर के रहस्र्याि की सबस ेबड़ी वविषेता है जो जीवन के र्यथाथक के बीच स े

    होकर गजुरता है. श्जस अनतं को ससंार के समस्त प्राणी मदंिर, मश्स्जि में ढंूढत ेहैं वह कस्तरूी के

    समान मगृ की नाशि में ही उपलब्ध है.-

    “कस्तरूी कुण्िली बसे, मगृ ढंूढे बन मादह

    ऐसोदह घि-घि राम हैं, ितुनर्या जाने नादह.”

    कबीर के िािकतनक चचतंन पर वेिांत, नाथ, सहज सपं्रिार्य तथा सफूी ववचारधारा का प्रिाव रहा है. इन

    प्रिावों के कारण तथा कागज़ की लेखी के स्थान पर स्वानिुतूत को अचधक महतव िेने के कारण,

    कबीर के ब्रहम, ईववर र्या तनराकार राम का स्वरुप और िी अचधक रहस्र्यमर्य हो गर्या है. उस परम

    सतता के वास्तववक रहस्र्य का उद्घािन सिंव नहीं है, वह तो गूगें के गड़ु की िांतत अनिुवगम्र्य

    होता है. कबीर ने िी ऐसा िाव व्र्यतत क्रकर्या है-

    “अकथ कहानी पे्रम की कहु कही न जार्य

    गूगें केरी सरकरा खावे और मसुकार्य.”

    इसका कारण र्यही है क्रक श्जसके मखु र्या मस्तक न हो और जो पटुपगधं से िी पतला हो, उसका

    स्पटिीकरण क्रकर्या ही कैस ेजा सकता है-

    “जाके मखु माथा नहीं, नाही रूप कुरूप

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    पहुुप बास त ेपातरा, ऐसा ततव अनपू.”

    कबीर के रहस्र्यवाि की पद्धतत अपनी ववलक्षणता शलए हुए हैं जो जीवातमा और परमातमा के सारे-ततव

    को तनरुवपत करने वाली अनेकानेक साधनाओ ंकी जानकारी के कारण है. वह एक ओर दहन्िओुं के

    अद्वतैवाि के िोड़ में पोवषत है तो िसूरी ओर मसुलमानों के सफूी शसद्धांतो को स्पिक करता है. कबीर

    के रहस्र्यवाि का प्राण ततव अद्वतै ही है. कबीर ने साधना के माध्र्यम से श्जस अद्वतै की िावना

    का अथवा रहस्र्यवाि की स्थापना की उसी को परवती सतंो ने िहुरार्या है. साधना के इस स्तर पर

    आतमा परमातमा, अिं-अिंी, अश्नन स्फुशलगं की द्वतै िावना क अतं हो गर्या; एक तरह स ेसवकवाि

    की श्स्थतत उतपन्न हो गई-

    “जल में कुम्ि, कुम्ि में जल है, बाहर – िीतर पानी

    फूिा कुम्ि, जल जलदह समाना, र्यह तथ्र्य कहो चगर्यानी”

    कबीर नाथपथं की र्योग साधना से िी पररचचत थे और उसके माध्र्यम से तनराकार एकेववर के साथ

    अपनी जीवातमा का मेल कराने का प्रर्यतन करत े थे. श्जसे वे ऐसे वातर्यों में प्रकि करत े रहे.

    “रस गगन गफुा में अजर िरे”

    अथवा

    “इड़ा वपगंला ताना िरनी सषुमन तार से बीनी चिररर्या”

    क्रकन्त ुनाथपचंथर्यों के प्रिाव से मतुत होने के बाि कबीर ने िश्तत और प्रीतत के िांपतर्य वाले रूपकों

    में प्रेम की अनन्र्यता की तो व्र्यजंना की है, उसके अततररतत ‘सहज समाचध’ का एक नर्या रागातमक

    शे्रत्र िी जो जोचगर्यों की समाधी से शिन्न पे्रमर्योगी सरुतत-तनरतत थी. इसी प्रेम को वे जीवन का सार

    मानत ेहैं-

    “ढाई आखर प्रेम का पढे सो पडंित होर्य.”

    आचर्यक हजारी प्रसाि दिविेी ने ठीक ही कहा है – “सच पूछा जाए तो कबीरिास र्योगमागक की श्तलटि

    साधनाओं को िी बाह्र्याचार समझत े रहे. उनके जैसा उन्मुतत ववचार का मनुटर्य क्रकसी प्रकार की

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    रुदढर्यों का कार्यल नहीं हो सकता था. बारम्बार वे श्जस सहज समाचध की घोषणा कर गए हैं उसमे

    नाना प्रकार के प्राणार्याम, आसन, समाचध और मुद्राएँ परम ततव की उपलश्ब्ध के साधन हैं, साध्र्य

    नहीं.” िॉ. रामकुमार वमाक, पारसनाथ ततवारी. गोववन्ि त्रत्रगणुार्यत, रामचदं्र ितुल जैसे अनेक ववद्वान

    ने रहस्र्यवािी कहने के शलए तनम्नशलखखत वविषेताओं का होना आववर्यक माना है-

    कबीरदास की रचनाओिं को कवविाकोश में देखने के ललए यहााँ क्तलक करें :

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    1. पे्रम की िीव्र अनभुतूि-

    रहस्र्यवाि में श्जतनी प्रेम की आववकता है िार्यि उतनी ज्ञान की नहीं, तिी तो कबीर कहत ेहै-

    “गरुु पे्रम का अकं पढ़ार्य दिर्या, अब पढ़ने को कछु नहीं बाकी.”

    इसी प्रेम के सहारे रहस्र्यवािी ईववर की अशिव्र्यश्तत पात ेही ऐसा प्रेम हो जाता है जब रहस्र्यवािी

    मतवाला हो उठता है. पे्रमानिुतूत इतनी दिव्र्य इतनी अलौक्रकक होती है क्रक सांसाररक िब्िों में इसका

    स्पटिीकरण असिंव नहीं तो कदठन अववर्य है.

    2. आध्याक्ममक िममव की प्रधानिा-

    पे्रम की अबाध अनिुतूत के साथ कबीर के काव्र्य में आध्र्याश्तमक तततव की प्रधानता िी है. इसके

    कारण आतमा एक इसे दिव्र्य वातावरण में रहती है जहाँ दिव्र्य माधुर्यक की सिी वस्तएंु अनार्यास उस े

    शमल जाती है-

    “राम नाम सो रंग लागो कुरंग न होई

    हरी रंग सो रंग और न कोई

    और सबे रंग इदह रंग त ेछुिे

    हरी रंग लागा किे न खिुें.”

    http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0#.U00LRfmSySohttp://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0#.U00LRfmSySo

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    3. चेिनशीलिा-

    कबीर के रहस्र्यवाि में सतत चेतनिीलता है अथाकत वह सिैव जागतृ रहे. कबीर ससंार की तनस्सारता

    की चचाक एक क्षण िर के शलए िी नहीं िलूत ेहैं और वह अपने अपने वप्रर्यतम से एक क्षण के शलए

    ववलग नहीं होना चाहत ेहैं. उनके अनसुार मन को तनरंतर जागतृ रहना है श्जससे कोई धोखा न खा

    जाए और सन्मागक ववस्मतृ न हो जाए. चेतनाववहीन होने पर परमातमा से सम्बन्ध छूिने का िर्य है-

    “मन रे जागत रदहए िाई.

    गाक्रफल होई बसत मत खोवे चोर घसेु घर जाइ.”

    4. परम समिा की ओर लगाव-

    मार्या रदहत होकर उस परब्रहम अनतं का ध्र्यान केवल िावना से ही नहीं अवपत ुपववत्र आतमा की

    सारी िश्ततर्यों से ही होना चादहए-

    “वे दिन कब आवेंगें माई

    जा कारन हम िेह धरी है शमशलबो अगं लगाइ

    हौं जान ूजो हल दहलशमशल खेल ूतन मन प्राण समाई.”

    अशिप्रार्य र्यह है क्रक कबीर के ह्रिर्य में ईववर के प्रतत प्रेम-िाव की अवतररत अबाध धारा

    प्रवादहत होती रहती है, उनकी उश्ततर्यों में आतमा-परमातमा, जीव, जगत, मार्या आदि सम्बन्धी

    आध्र्याश्तमक तततवों का सश्न्नवेि शमलता है, व ेससंार को शमथ्र्या और तनस्सार बतात ेहुए ईववर से

    शमलन के प्रतत सिैव जागरूक रहत ेहैं और उनकी उस अज्ञात सतता के प्रतत िावना हे सचंरणिील

    नहीं रहती अवपत ुउनका अण-ुअणु उससे शमलन की ओर ततपर रहता है.

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    भारिीय डाक द्वारा जारी ककया गया कबीरदास का डाक हटकट

    सािार : ववक्रकपीडिर्या

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    सामान्र्यतः रह्स्र्यवाि के िो प्रकार माने जात ेहै- (1) साधातमक रहस्र्यवाि (2) िावातमक रहस्र्यवाि.

    लेक्रकन कबीर के काव्र्य में चार प्रकार के रहस्र्यवाि के ििकन होत ेहैं-

    1. साधनाममक रहस्यवाद- साधनातमक रहस्र्यवाि वहां होता है जहाँ कवव र्योग साधना, कंुिशलनी र्योग,

    षिचिों आदि का उल्लखे करता है. कबीर के साधनातमक रहस्र्यवाि पर स्पटितः नाथपचंथर्यों का

    प्रिाव है. महततवपणूक र्यह है क्रक नाथो और शसद्धों ने र्योग के कातर्यक पक्ष को ही वविषे महततव

    दिर्या जबक्रक कबीर ने र्योग के मानशसक पक्ष को प्रधानता िेकर उसको आध्र्यश्तमक पक्ष पटुि

    क्रकर्या. कबीर ने अपने पिों में कंुिशलनी र्योग का वणकन करत ेहुए कहा-

    “अवधू गगन मिंल घर कीजे

    अमतृ िरे सिा सखु उपजे, बकंनशल रस पीज े

    उनका कहना है क्रक मलूाधार चि में श्स्थत कंुिशलनी को र्योग के बल से जागतृ करके सषुमु्ना

    नाड़ी में से जब षिचिों का िेिन करके सहसार चि तक पहँुच जात ेहैं तब काम और िोध िोनों

    हे जलकर नटि हो जात ेहैं-

    “काम-िोध िोउ िर्या पलीता तहां जोचगणी जागी.”

    http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0#.U00LRfmSySohttp://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0#.U00LRfmSySo

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    इसी प्रकार उन्होंने हठर्योचगर्यों के साधनापरक रहस्र्यवाि के कुछ सांकेततक िब्िों जैसे- चंि, सरू,

    नाि, त्रबिं ुइतर्यादि को लेकर अद्भतु रूपक बांधत ेहैं.

    2. भावनाममक रहस्यवाद-

    िावनातमक रहस्र्यवाि वहा ँहोता है जहाँ कवव तनगुकण-तनराकार परमातमा से अपना सम्बन्ध जोड़कर

    उससे शमलने की उतकंठा व्र्यतत करता है. कबीर ने स्वर्य ं जीवातमा और परमातमा को वप्रर्यतम

    मानकर उससे शमलन के आनिं का उल्लेख तनम्न पि में क्रकर्या है.-

    “िशुलदहनी गावहु मगंलचार

    मोरे घर आए हो रजा राम िरतार

    जहाँ उन्होंने स्वर्य ंको पतनी के रूप में प्रततपादित क्रकर्या है और ईववर अथवा ब्रहम को पतनी के

    रूप में, वहां कबीर िांपतर्य प्रेम को प्रतीकों के माध्र्यम से िावातमक रहस्र्यवाि को अशिव्र्यश्तत िेत े

    हैं-

    “हरी मेरा वपउ, मैं हरी की बहुररर्या

    राम बहे मैं छूिक लहररर्या.”

    इस प्रकार परमातमा शमलन की उतकि अशिलाषा, ववरह, व्र्याकुलता, ब्रहम शमलन की अनिुतूतर्याँ,

    आतम- समपणक की िावना, आंतररक प्रेम की तनटठा, ववरदहणी के कोमल ह्रिर्य की नाना श्स्थततर्यों

    को बड़ ेही हृिर्यग्राही िावतमक चचत्र प्रस्ततु क्रकरे्य हैं. जब सतगरुु की कृपा का प्रसाि पाकर साधक

    समस्त सांसाररक आकषकण से मतुत होकर अपने इटि के प्रतत उन्मखु हो जाता है तो िावनाओं की

    िचंगमा के कारण िावनातमक रहस्र्यवाि का उदे्भिन कताक है-

    “बशलहारी गरुु आपकी, द्र्योहारी सौ बार

    श्जन मानीख त ेिेवता करत ना लागी बार.”

    िश्तत प्रेम से प्रानत होने के कारण इसे िाव-िश्तत की उपाचध से िी अलकृंत क्रकर्या गर्या है.

    िसूरी श्स्थतत वह है जहाँ जीवातमा की पमातमा से शमलने की आतरुता व्र्यतत की जाती है, श्जसमें

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    कवव र्या साधक ववरह शमलन, अशिलाषा-वेिना , आिा-तनरािा की अतर्यतं माशमकक िावनाएँ व्र्यतत

    करता है. कबीर शलखत ेहैं-

    “इस तन का िीर्या करो, बाती मेलौं जीव

    लोहीं सीचौ तले ज्र्यों, तब मखु िेखों पीव.”

    कबीर की अद्वतैवाि में आस्था रही है, अतः उनके रहस्र्यवाि की अतंतम श्स्थतत में आतमा का

    परमातमा से पणूकतर्या एतर्य हो जाने र्या आतमा के परमातमा के ववलीन होने के िाव व्र्यतत क्रकए

    गए हैं-

    “तू ंतू ंकरता तू ंिर्या, मझु में रही न हंू.

    बारी फेरी फली गई श्जत िेंखू ततत तू.ं”

    आचर्यक रामचंद्र ितुल के िब्िों में “कबीर की वाणी में स्थान स्थान पर भावाममक रहस्यवाद की जो

    झलक लमलिी है, वह सूकियों के समसिंग का प्रसाद है.” सफूी कवव िी क्रकसी एक परोक्ष ईववर को

    अपने पे्रर्य का आलबंन बनात ेहैं और पे्रम के रहस्र्यवािी साधना में प्रवतृत होत ेहैं. वह परोक्ष िश्तत

    दिव्र्य और अलौक्रकक रूप वाली है. सकू्रफर्यों ने इस अलौक्रकक दिव्र्य िश्तत को मािकूा के रूप में

    चचत्रत्रत क्रकर्या है और पे्रमी जीवातमा को मािकू के रूप में.

    कबीर ने इस सफूीमत को अपनार्या को लेक्रकन उन्होंने स्त्री रूप िगवान की िावना को ईववर को

    छोड़कर िारतीर्य अद्वतैवाि के अनकूुल परुुष रूप ब्रह्म को अपनार्या है. प्रेम के आलबंन और

    आश्रर्य के रूप को बिल िेने पर िी सफूी पे्रम साधना के अनरुूप ही कबीर ने िी अपने अचधकांि

    काव्र्य में जीवातमा और परमातमा के प्रेममर्य आकषकण का चचत्रण क्रकर्या है. इस पे्रम की िशूमकाओ ं

    का चचत्रण करत ेहुए सफूी रहस्र्यवाि की साधना की चारों िशूमकाएँ उनके काव्र्य में लक्षक्षत होती है.

    कहीं वे िरीर्यत रूप प्रेम प्रवशृ्तत का चचत्रण करत ेकरत ेहैं, कहीं तरीकत रूप प्रेम की िाव-िशूमका

    में आत ेहैं. कही वे हकीकत रूप में ईववरीर्य पे्रम का अनिुव करत ेहैं और कहीं मारीफ़त रूप में

    जीवातमा का परमातमा के साथ प्रेम शमलन दिखलात ेहैं. मारीफ़त में जाकर आतमा और परमातमा

  • कबीर का रहस्यवाद

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    का सश्म्मलन हो जाता है. सफूी शसद्धांत के अनसुार आतमा स्वर्य ंफ़ना होकर बका के शलए प्रस्ततु

    होती है. कबीर ने अपने काव्र्य में उस पे्रम की खुमारी का आधार बनाकर िी अपने रहस्र्यवाि की

    अशिव्र्यश्तत की है-

    “हरर रस वपर्या जातनए, कबहँू न जाए खुमार

    मैं मन्ता घमुत क्रफरे, नाहीं तन की सार.”

    इस प्रकार के प्रेम- िावना का चचत्रण कबीर के काव्र्य को सफूी रहस्र्यवाि के पे्रम िावना के तनकि

    पहँुचा िेता है.

    िावतमक रहस्र्यवाि को कबीर ने अपने अनेक छंिों में व्र्यतत क्रकर्या है और ईववर के साथ अपने

    साक्षातकार का चचत्र खींचा है-

    “मन मस्त हुआ तब तर्यों बोले,

    तरेे साहब है घर र्यादह”ं

    कबीर ने स्त्री और परुुष का रूपक अपनाकर पे्रम की जो व्र्यजंना की है उसमें सफूी रहस्र्यवाि पे्रम-

    साधना का ममक ही झलकता है, जैसे

    “हरर मोर रहता मैं रतन वपर्यररर्या

    हरर का नाम ले कतक बहुररर्या”

    3. पाररभाविक शब्दों का रहस्यवाद- कबीर ने पाररिावषक िब्िों का प्रर्योग सगुमतापवूकक व्र्यवहार कर

    रहस्र्यवाि को स्पटि करने के चटेिा की है. कबीर ने स्थान-स्थान पर अनेक रहस्र्यपणूक पाररिावषक

    िब्िों का प्रर्योग क्रकर्या है. सिंवतः इन के प्रर्योग के पीछे नाथों और शसद्धों के हठर्योग का प्रिाव

    कार्यक कर रहा था-

    “पाँचो नाग, पचचसों नाचगतन

    सघुन्त तरंुत मरी.”

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    कबीर ने अपनी रचनाओं में षिचि, िस िरवाजे, पदं्रह चंिा, सोलह पवन आधारों, बावन कोठररर्यों,

    16 चिों आदि पाररिावषक िब्िों का प्रर्योग िी रहस्र्यवािी ढंग से क्रकर्या है.

    4. अलभव्यक्तिमलूक रहस्यवाद – कबीर ने साधना की बातों को िी अशिव्र्यश्तत की कुिलता के

    माध्र्यम से इस प्रकार उद्घादित क्रकर्या है क्रक व े रहस्र्यवािी हो गई हैं. अनेक रूपकों और

    अन्र्योश्ततपरूक उश्ततर्यों द्वारा कबीर ने पे्रम की ही अबाध धारा बहार्यी है और पे्रम के सहारे

    रहस्र्यवाि की अशिव्र्यश्तत की है. इस रहस्र्यवाि की अनिुतूतमलूक श्स्थतत का िी उन्होंने बड़ े

    सनु्िर िब्िों में उल्लेख क्रकर्या है-

    “पे्रम और प्रकाि के शसन्धु माहीं

    सिा आनिं िःुख िंि ज्र्यापे नाहीं.”

    उनके अन्र्योश्तत पिों में जीवातमा के ववरह का, उसकी िर्यनीर्य ििा का चचत्रण है-

    “काहे री नशलनी त ूकुश्म्हलानी

    तरेे ही नाल सरोवर पानी

    जल में उतपश्तत जल में ही बास

    जल में नशलनी तोर तनवास.”

    इसी प्रकार की उलिबाशसर्यों के माध्र्यम से ईववर के प्रतत अपनी रह्स्र्यातमक अनिुतूत को कबीर ने

    “सधंा िाषा” में व्र्यतत क्रकर्या है-

    “बलै ववर्यालर्य गववर्या बांझ”े

    अथवा

    “नाव त्रबच नदिर्या िूबी जार्य”

    इस प्रकार कबीर ने बहुत से अन्र्य स्थलों पर िी साधारण सी बातों को इस प्रकार की साकेंततक

    िलैी में अशिव्र्यतत क्रकर्या है क्रक वे रहस्र्यमर्यी हो गई हैं. इन उलिबाशसर्यों के पीछे की सच्चाई को

    उजागर करत ेहुए शिवकुमार शमश्र शलखतें हैं-“उलिबाशसर्यों उन्होंने साधारण जनता को अपने ज्ञान

    से आतकं्रकत करने के शलए नहीं शलखी. उनका लक्ष्र्य पोथी ज्ञान स ेिब ेपडंित थे, श्जनके बीच कबीर

    को रहना और जीना था. जादहर है क्रक उनकी उलिबाशसर्यों के अथक पोचथर्यों में नहीं थे, और पडंितों

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    की नगरी कासी का कोई िी पडंित उनका अथक करने में समथक नहीं था. पडंितों के अहंकार को

    कबीर की रे्य उलिबाशसर्यों तोड़ती हैं, उनके सारे ज्ञान की पोल खोल िेती है.

    कबीर अमिृवाणी (गायक : देवाशीि दास गपु्ि) सनुने के ललए यहााँ क्तलक करें -

    https://www.youtube.com/watch?v=JWrqvgJ4oLM

    तनटकषकतः कहा जा सकता है की र्यद्र्यवप कबीर की रचनाओं में िावातमक और साधनातमक

    िोनों ही प्रकार का रहस्र्यवाि तो शमलता ही है, उन्होंने पाररिावषक िब्िों स ेओत-प्रोत रहस्र्यमर्यी

    उश्ततर्याँ िी शलखी हैं क्रकन्त ुजहाँ तक उनके मन के रमने का प्रवन है, वह िावातमक रहस्र्यवाि में

    ही रमा है. साधनातमक रहस्र्यवाि सम्बन्धी उिगार िी कबीर ने प्रचुर पररमाण में व्र्यतत क्रकए हैं,

    क्रकन्त ुउनके बाह्र्याचारों के ववरोधी अन्तमकन ने उनका ववरोध िी कम नहीं क्रकर्या है. अतः कबीर के

    काव्र्य में सवकशे्रटठ पे्रममलूक रहस्र्यवाि ही है. िषे रूपों में तो परंपरा का आग्रह है जबक्रक उस

    प्रेमातमक रहस्र्यवाि में कबीर की मौशलक उद्भावनाएँ मन मोह लेती हैं. चाहे कुछ िी हो कबीर दहिंी

    के सवकशे्रटठ रहस्र्यवािी कवव ठहरत ेहैं. एक स्वर स ेसबने र्यही स्वीकार क्रकर्या है. अमेररकन मदहला

    अनिरदहल ने उन्हें “िारतीर्य रहस्र्यवाि के इततहास में सवाकचधक रोचक व्र्यश्तत” की सजं्ञा िेकर उनकी

    साथककता को सवांरा है.

    “The most interesting personality of the history of indian mysticism.”

    रहस्र्यवाि के शे्रत्र में अनेक ववद्वानों ने कबीर की अपेक्षा जार्यसी को शे्रटठ माना है. आचर्यक ितुल के

    अनसुार- “कबीर में जो रहस्र्यवाि शमलता है, वह तो बहुत कुछ उन पाररिावषक सजं्ञाओं के आधार पर

    जो वेिान्त तथा हठर्योग में तनदिकटि है, पर इन प्रेम प्रबधंकारों (जार्यसी आदि) ने बीच बीच में श्जस

    रहस्र्यवाि के सकेंत क्रकए हैं वे स्वािाववक तथा ममकस्पिी हैं.” र्यही मतंव्र्य िॉ वर्यामसुिंर िास ने िी

    दिर्या है- “कववता की दृश्टि से कबीर का रहस्र्यवाि सरल न होने के कारण उतना उतकृटि नही ं

    श्जतना जार्यसी आदि सफूी कववर्यों का,” लेक्रकन वास्तव में सरू्यक और चन्द्र की शे्रटठता प्रततपादित

    करना र्यशु्ततसगंत नहीं बठैता है तर्योंक्रक िोनों का अपने स्थान पर अलग अलग महततव है. हाँ, कबीर

    के रहस्र्यवाि को केवल अध्र्याश्तमक ऐकाश्न्तक, व्र्यश्टिमलूक, सजीव और वणाकतमक मानना अनचुचत

    https://www.youtube.com/watch?v=JWrqvgJ4oLM

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    है. उसमें अशिव्र्यतत प्रेम अतर्यतं सरस, माशमकक और उच्च कोदि का है. मसलन अपने िावातमक

    रहस्र्यवाि के अतंगकतकबीर अचधकतर िाम्पतर्य पे्रम के रूपक बाँधत े हुए अपनी बात कहत ेहैं. नहैर

    छोड़कर जाने की ललक अनेक पिों में व्र्यतत हुई है, किी अखखर्याँ इतना अलसा गई है क्रक सहुाचगन

    वपर्या से सेज पर चलने के कह रही है, किी चुनररर्या पे्रम रस की बूँिों से िीग उठी है किी वपर्या को

    घर का तनमतं्रण है, कहने का अशिप्रार्य र्यह है क्रक माधुर्यक िश्तत का बड़ा हे सरस रूप कबीर के रे्य

    पि प्रस्ततु करत ेहैं. कबीर में माधुर्यक िाव कुछ िसुरे ऐसे ही िततों की तलुना में मशलन र्या ववलास-

    कलवुषत नहीं हुआ है. गोववन्ि त्रत्रगणुार्यत के िब्िों में- “कबीर हमारी िाषा के शे्रटठ रहस्र्यवािी कवव

    हैं.” इसी सन्ििक में िॉ रामकुमार वमाक हैं क्रक- “रहस्र्यवाि दहिंी सादहतर्य कोष की एक अनुपम धारा है

    श्जससे प्रिाववत होकर कोई िी व्र्यश्तत िवसागर से पार हो सकता है और कबीर ऐसे ही शसद्धांत के

    प्रततपािक है.”

    स्व-मलू्र्यांकन प्रवनमाला

    बहु-ववकल्पीर्य प्रवन

    1. ततं्र न जान,ू मतं्र न जान,ू जान ूसनु्िर कार्या” क्रकसकी पशं्ततर्याँ हैं

    (क) कबीर

    (ख) रहीम

    (ग) मलकूिास

    (घ) रैिास

    2. तनम्न में से कौन पणूकतर्या अद्वतैवािी सतं कवव नहीं हैं

    (क) कबीर

    (ख) िाि ू

    (ग) मलकूिास

    (घ) सनु्िरिास

    3. रामानिं के शिटर्य थ-े

    (क) रैिास

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    जीवन पर्यतं शिक्षण ससं्थान, दिल्ली ववश्ववद्र्यालर्य

    (ख) राघवानिं

    (ग) रात्रबर्या

    (घ) िीम कवव

    4. कबीर िास का जन्म हुआ था-

    (क) लहरतारा

    (ख) तलविंी

    (ग) सेनहुरा

    (घ) मगहर

    लघ ुउततरीर्य प्रवन :

    1. रहस्र्यवाि के प्रमखु ततवों के नाम बताइए.

    2. रहस्र्यवाि के प्रकारों का उल्लेख कीश्जए.

    ववस्ततृ उततरीर्य प्रवन :

    1. कबीर के रहस्र्यवाि की वववचेना कीश्जए.