संस्क £त हस्तलिलित ग्रन्थों में स...

11
Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694 www.pratnakirti.com 7 संकृ त-हतलिलित थ म सुरलित गलितीय सालहय और उसके महान् उारक : डॉ. के. वी. शमा- ानकाश लिपाठी © [email protected] - K. V. Sharma: the Mathematician/ Contributions of K.V. Sharma to Mathematics, Astronomy and Astrology. History of Indian Mathematics, Astronomy and Astrology. Mathematics in Sanskrit Manuscripts. Sanskrit sources of Indian Mathematics, Astronomy, and Astrology. Kerala School of Mathematics, Astrology and Astronomy. सार संिेप Professor K.V Sarma was an eminent scholar of Indian astronomy and mathematics, Sanskritist and manuscriptologist When most of historians of mathematics thought that Bhaskaracharya-II’s Siddhant shiromaniwas the last great work on astronomy and mathematics in Indian tradition and there are no significant achievement after this. It was extraordinary efforts of Prof Sarma that brought the attention of historian of mathematics to achievements of kerala school of mathematics, astronomy and astrology, during the late medival period. He painstakingly collected/copied the Kerala manusripts on astronomy, astrology and mathematics, and carefully edited and published many of them. In this paper, we give a brief biographical sketch of Prof K. V. Sarma’s life and contribution made by him in the field of indian Mathematics and Aastronomy. भारतीय लवान और तसबधी सालहय एक िबी कािावलध तक लव-समुदाय के कौतूहि और आकाि का के र रहा है बावज़ूद इसके भारतीय वैालनक सालहय-सपदा को कभी भी एक वलथत ऱप नह ᳰदया जा सका। यहा यह बताना आयाजनक होगा ᳰक हतलिलित संकृ त-कᳱ िके िगभग २२५ वा ाचीन इलतहास िि पाडुलिलपया संरलित कᳱ और इनके मवार अथवा लवयवार कई लवतृत सूचीपि तैयार कर उह कालशत ᳰकया गया ᳰकतु इनम (वतामान लपछिे दो दशक को छोड़) कोई भी सूचीपि ऐसा नह लजसम संकृ त लिलित वैालनक का एकि लवतृत लववरि हो। © Assistant Professor, Dept. of Mathematics, S.G.R. P.G. College, Dobhi, Jaunpur.

Upload: others

Post on 29-Sep-2020

3 views

Category:

Documents


0 download

TRANSCRIPT

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 7

    संस्कृत-हस्तलिलित ग्रन्थों में सरुलित गलितीय सालहत्य और उसके महान ्उद्धारक :

    डॉ. के. वी. शमाा

    - ज्ञानप्रकाश लिपाठी©

    [email protected]

    - – K. V. Sharma: the Mathematician/ Contributions of K.V. Sharma to Mathematics,

    Astronomy and Astrology. History of Indian Mathematics, Astronomy and Astrology. Mathematics in Sanskrit Manuscripts. Sanskrit sources of Indian Mathematics, Astronomy, and Astrology. Kerala School of Mathematics, Astrology and Astronomy.

    सार सिंेप

    Professor K.V Sarma was an eminent scholar of Indian astronomy and mathematics,

    Sanskritist and manuscriptologist When most of historians of mathematics thought that

    Bhaskaracharya-II’s ‘Siddhant shiromani’ was the last great work on astronomy and

    mathematics in Indian tradition and there are no significant achievement after this. It was

    extraordinary efforts of Prof Sarma that brought the attention of historian of mathematics to

    achievements of ‘kerala school of mathematics, astronomy and astrology’, during the late

    medival period. He painstakingly collected/copied the Kerala manusripts on astronomy,

    astrology and mathematics, and carefully edited and published many of them. In this paper,

    we give a brief biographical sketch of Prof K. V. Sarma’s life and contribution made by him in

    the field of indian Mathematics and Aastronomy.

    भारतीय लवज्ञान और तत्सम्बन्धी सालहत्य एक िम्बी कािावलध तक लवश्व-समुदाय के कौतूहि और

    आकर्ाि का केन्र रहा ह ैबावज़ूद इसके भारतीय वैज्ञालनक सालहत्य-सम्पदा को कभी भी एक व्यवलस्थत रूप

    नहीं ददया जा सका। यहााँ यह बताना आश्चयाजनक होगा दक हस्तलिलित संस्कृत-ग्रन्थों की िोज के िगभग

    २२५ वर्ा प्राचीन इलतहास में िािों पाण्डुलिलपयााँ संरलित की गईं और इनके क्रमवार अथवा लवर्यवार कई

    लवस्तृत सूचीपि तैयार कर उन्हें प्रकालशत दकया गया दकन्तु इनमें (वतामान लपछिे दो दशकों को छोड़) कोई भी

    सूचीपि ऐसा नहीं लजसमें ससं्कृत में लिलित वैज्ञालनक ग्रन्थों का एकि लवस्तृत लववरि प्राप्त हो।

    © Assistant Professor, Dept. of Mathematics, S.G.R. P.G. College, Dobhi, Jaunpur.

    mailto:[email protected]

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 8

    प्राचीन भारतीय वैज्ञालनक लवर्यों में यूाँ तो बहुतरेे लवर्यों का समावेश ह ैदकन्तु लवज्ञान के लजस लवभाग

    पर प्राचीन भारतीय मनीलर्यों ने सबस े अलधक ध्यान आकृष्ट दकया और समूचे लवश्व में लजस े सबसे अलधक

    मान्यता, स्वीकृलत और लववेचना के अवसर प्राप्त हुए वह ह ै ‘गलित’। यहााँ यह भी बता दनेा उलचत होगा दक

    ‘गलित’ आज की ही भांलत प्राचीन भारत में भी लवशुद्ध लवज्ञान के रूप में पररगलित नहीं था और ज्योलतर् के

    अन्तगात ‘लसद्धान्त’ पिों की लववेचना के रूप में यह अपना योगदान ददया करता। यही कारि ह ैदक ज्योलतर् के

    इस लवभाग को ‘गलितज्योलतर्’ के नाम से भी जाना जाता ह।ै

    यूाँ तो प्राचीन भारतीय वैज्ञालनक सालहत्य; ख़ासकर भारतीय गलित के अध्ययन और लवशे्लर्ि के प्रलत

    यूरोपीय दशे और उनके लवद्वानों का आकर्ाि अठ्ठारवीं सदी के मध्य औद्यौलगक क्रालन्त के बाद से ही प्रारम्भ हुआ

    दकन्तु इनके व्यलस्थत अध्ययन, लववेचन और व्यवस्थापन का दौर १८७०-८० ई. और उसके बाद शुरू हुआ

    लजसमें स्वय ंभारतीय लवद्वानों ने भी बढ़-चढ़ कर लहस्सेदारी की। कािक्रम के अनुसार गलित के लवलवध िेिों में

    वैलश्वक अनुसन्धान और उपिलधध ने लवज्ञान की अनेक शािाओं को आशातीत उन्नलत की दशा एवं ददशा प्रदान

    की। कहना नहीं होगा दक इन वैलश्वक गलितीय अनुसन्धान और उपिलधधयों के अन्तगात भारतीय गलित की

    भूलमका, उसके तथाकलथत सम्प्रत्यय और उपिलधधयों की भी दशा एवं ददशा पर सतत काया दकया जाता रहा

    और अपनी सम्मालनत अवस्था में उस ेलवश्व गलित-समुदाय न ेप्रलतष्ठालपत भी दकया।

    लवश्व-गलितीय अनुसन्धान और इससे प्राप्त लनष्कर्ों के द्वारा वैज्ञालनक लवर्यों को सवाांग रूप स े पुष्ट

    दकये जान ेके उपयुाक्त दौर में लजस एक लवर्य पर समूची दलुनया का ध्यान सबस ेअलधक आकृष्ट हुआ और इसकी

    वज़ह स ेलवश्व के सभी दशेों ने लजस लवर्य को सबसे अलधक महत्ता और स्वीकृलत दकेर तत्सम्बन्धी अनुसन्धान

    को बढावा ददया वह था ‘गलित का इलतहास।’ क्योंदक गलित के वह तमाम सम्प्रत्यय और उनस ेसम्बलन्धत

    उपिलधधयााँ जो लवश्व-लवज्ञान को असीलमत सम्भावनाए ंप्रदान कर रही थीं; उन पर प्रायः सभी दशेों का अपना-

    अपना दावा प्रकट हो रहा था और इस प्रकार का कोई दावा तभी मुिर और युलक्तयुक्त हो सकता ह ै जब

    सम्बलन्धत लवर्य पर तद्दशेीय इलतहास का सवााङ्ग लववेचन दकया जा चुका हो।

    कहना नहीं होगा लवश्व के तमाम दशेों की अपेिा भारत में इस प्रकार के ऐलतहालसक अध्ययन की सबसे

    अलधक आवश्यकता थी क्योंदक गलित के अनेक सम्प्रत्ययों पर भारत प्राचीन काि स ेअपना दावा प्रस्तुत करता

    आ रहा था। दकन्तु दभुााग्य से; चूाँदक गलित शास्त्र से सम्बलन्धत उसका ऐलतहालसक अध्ययन कभी भी व्यवलस्थत

    और वैज्ञालनक नहीं रहा अतएव अपने दावों पर प्रामालिक सामग्री और लववेचना न प्रस्तुत दकए जान ेसे गलित

    के लवलभन्न सम्प्रत्ययों और उनस ेसम्बलन्धत उपलधधयों पर इसके दावों को लवश्व-गलित-समुदाय ने एकमत स े

    स्वीकार भी नहीं दकया।

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 9

    भारतीय गलित के इलतहास पर यूाँ तो उन्नीसवीं सदी के अलन्तम दशकों से ही अनुसन्धान परक कायों

    का प्रारम्भ हो गया था और इस युग के स्मरिीय आचायों में पलण्डत सुधाकर लद्ववेदी, शंकर बािकृष्ि दीिीत

    सरीि े गलितज्ञों न े इस िेि में मानक कायों को स्थालपत भी दकया दकन्त ु अनुसन्धान की यह धारा सतत

    प्रवालहत नहीं रह सकी। कािान्तर में ‘गोरि प्रसाद’ सरीिे कुछ लवद्वानों के नाम यद्यलप लिए जा सकत ेहैं दकन्तु

    ‘लवश्व-गलित-इलतहास’ के समानान्तर भारत के गलित का इलतहास अभी भी नगण्य माना जाता रहा। यहााँ यह

    ध्यान में रिना चालहए दक इस िेि में लवदशेी लवद्वानों के कायों का उल्िेि यहााँ नहीं दकया जा रहा।

    यहााँ यह उल्िेि करना अप्रासंलगक नहीं होगा दक भारतीय गलित के इलतहास पर तथाकलथत

    ऐलतहालसक अनुसन्धान और लवशे्लर्ि के मागा में अनेक करठनाइयााँ थीं और हैं दकन्तु प्रस्तुत पंलक्तयों के िेिक को

    इस िेि में जो सबसे बड़ी बाधा प्रतीत होती ह ैवह ह ै‘प्राचीन भारतीय गलितीय सालहत्य’ की व्यवलस्थत और

    सांगोपांग सूचना का अभाव। ऊपर बताया जा चुका ह ैदक लपछिी दो शतालधदयों में प्राचीन भारतीय बौलद्धक

    सम्पदा अथाात् संस्कृत और प्रादलेशक भार्ाओं की लिलपयों में संरलित पाण्डुलिलपयों का लवर्यवार अथवा

    क्रमवार कई लवस्तृत सूचीपि दशे-लवदशे के हस्तलिलित ग्रन्थ-संग्रहाियों द्वारा प्रकालशत दकए गए और आज भी

    दशे-लवदशे के लवश्वलवद्यािय, संग्रहािय, पुस्तकाियों सलहत वैयलक्तक प्रयत्न इस ददशा में स्तुत्य काया कर रह ेहैं।

    स्वयं भारत सरकार पाण्डुलिलपयों के संरिि हते ु‘राष्ट्रीय पाण्डुलिलप लमशन’ (इंददरा गांधी राष्ट्रीय किा केन्र के

    तहत) नाम से एक बड़ा भारी व्ययशीि एजेंसी चिा रही ह।ै दकन्तु पाण्डुलिलपयों के अन्वेर्ि के इतने प्राचीन

    इलतहास के बावज़ूद यह बताना लवर्ादपूिा ह ै दक संस्कृत अथवा प्रादलेशक भार्ाओं की लिलपयों में संरलित

    प्राचीन भारतीय वैज्ञालनक सालहत्य; िासकर गलित-सालहत्य की पाण्डुलिलपयों को एकलित करन,े उसके

    लववरिात्मक सूचीपि तैयार करन ेकी ओर कभी लवशेर् ध्यान नहीं ददया गया।

    यहााँ S. N. Sen साहब का नाम्ना उल्िेि आवश्यक प्रतीत होता ह ै लजन्होंन े बहुत ही प्रररश्रम से A

    Bibliography of Sanskrit Works on Astronomy and Mathematics1 के नाम से एक व्यलस्थत

    सूचीपि तैयार की और उसे प्रकालशत दकया दकन्त ुयह संस्कृत अथवा प्रादलेशक भार्ाओं की लिलपयों में संरलित

    गलितीय पाण्डुलिलपयों पर कोई सूचना प्रस्तुत नहीं करता।

    भारतीय गलित के इलतहास का यह लवर्म अध्याय लवगत कई वर्ों से मेरा ध्यान आकृष्ट दकय ेहुए ह ै

    दकन्तु संस्कृत-भार्ा और इसके अनुसन्धान के प्रथमस्तरीय शोध-सामग्री ‘पाण्डुलिलपयों’ और उनके सूचीपिों

    तक पहुचं न होन ेसे इस ददशा में कभी काया करन ेका साहस भी नहीं हुआ। कािान्तर में मेरे लमि प्रताप कुमार

    लमश्र द्वार संस्कृत-हस्तलिलित ग्रन्थों के सूचीपिों को उपिधध करा दने ेऔर सम्बलन्धत सालहत्य की िोज में

    मदद दने ेसे इधर मेरा उत्साह बढा और इस लवर्य पर प्रारम्भ स ेकाया करन ेकी इच्छा प्रवृत्त हुई।

    1 यह ग्रन्थ 1966 A.D., National Institute of Sciences of India से प्रकालशत ह.ै

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 10

    भारतीय गलित के इलतहास पर मेरा यह काया दकस रूप में पररित होगा यह मैं स्वयं नहीं जानता

    िेदकन इस काया की पहिी प्रलवलध जो मैंने तैयार की ह ैवह इसे पूिाता प्रदान करन ेमें िासी सहायता दगेी। यह

    प्रलवलध ह ैप्रथम उन भारतीय तथा लवदशेी लवद्वानों के व्यलक्तत्व तथा उनके कायों का लवशे्लर्ि लजन्होंने संस्कृत

    अथवा प्रान्तीय भार्ाओं की लिलपयों में संरलित हस्तलिलित गलितीय ग्रन्थों पर काया दकया और इस लवर्य में

    काया करन ेकी सुलवधा, दशा एवं व्यवलस्थत ददशा प्रदान की।

    इस शंृििा में हम यहााँ ‘प्रो. के. वी. शमाा’ के व्यलक्तत्व एवं उनके गलितेलतहास-सम्बन्धी कायों का

    पररचय प्रस्तुत कर रह ेहैं।

    प्राचीन भारतीय गलित तथा िगोिशास्त्र जैसे महत्त्वपूिा लवर्यों पर भारतीय लवद्वानों का ध्यान

    स्वतंिता पूवा स ेही आकृष्ट हो चुका था और इस िेि में अनुसन्धान परक कायों के साथ साथ प्राचीन महान ्

    भारतीय गलितज्ञों व िगोिशालस्त्रयों जैसे आयाभट्ट, ब्रह्मगुप्त, वरामलमलहर, भास्कर (प्रथम एवं लद्वतीय) आदद

    की उत्कृष्ट कृलतयााँ भी प्रकाश में आनी शुरू हो गई थीं। यह उल्िेिनीय ह ैदक सुधाकर लद्ववेदी से प्रारम्भ हुई यह

    अनुसन्धान धारा शंकरबाि कृष्ि दीलित तक तो अिुण्ि ददिती ह ै दकन्तु स्वतंिता के बाद इस िेि में एक

    प्रकार का व्यलतक्रम ददििाई पड़ता ह ैऔर हम दिेते हैं दक इसके बाद इन लवर्यों और िेि में काया करन ेवाि े

    भारतीय लवद्वान ्अपवाद-स्वरूप ही रह जात ेहैं। इन्हीं अपवाद-स्वरूप भारतीय लवद्वानों में लवििि प्रलतभा के

    धनी प्रो. के. वी. शमाा भी थ ेऔर ‘लवश्व-गलित को भारत का योगदान’ अथवा ‘भारतीय गलित का इलतहास’

    शीर्ाक प्रस्तुत पररयोजना के सम्भालवत प्रमुि अध्यायों में अन्यतम ‘संस्कृत-स्रोत’ तथा इसकी सीमा के

    सम्भालवत मुख्य लववेच्य ‘स्रोत-संरिक’ की संख्या-१ के रूप में हम इन्हीं के व्यलक्तत्व एवं कृलतत्व को इस िघ ु

    शोध आिेि में प्रस्तुत करेंगे।

    प्रोफेसर के. वी. शमाा (१९१९-२००५ ई.)

    गलित एवं िगोिशास्त्र के अद्भुत ज्ञात, पारम्पररक ससं्कृत के आचाया और मैनुलस्क्रप्टॉिोजी पारंगत

    लवद्वान ्प्रो. के. वी शमाा (कृष्ि वेंकटेश्वर शमाा) का जन्म केरि राज्य के चेंगनू्नर लज़िे में २२ ददसम्बर १९१९

    ई. को हुआ था। उनकी प्रारलम्भक लशिा-दीिा लतरुवनन्तपुरम् लजिे के पास अरट्टगााँव में हुई थी। संस्कृत-लशिा

    इनके पररवार में परम्परा से चिी आ रही थी यही कारि ह ैदक ‘बी. एस्सी.’ मुख्य लवर्य भौलतकी-लवज्ञान से

    करन े के बावज़ूद ‘एम.ए.’ इन्होंने संस्कृत में सन ्१९४२ ई. में लतरुवनन्तपुरम् के महाराजा आर्टसा कािेज स े

    लवशेर् योग्यता के साथ उत्तीिा दकया। वर्ा १९४३ स े१९५१ ई तक प्रो. शमाा केरि लवश्वलवद्यािय के ‘प्राच्य

    शोध संस्थान’ के पाण्डुलिलप-संग्रहािय में ‘सुपवाइजजग पलण्डत’ के पद पर कायारत रह।े यहााँ इन्होंन ेताड़पिों व

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 11

    लवलभन्न प्रकार की पाण्डुलिलपयों के अध्ययन व सम्पादन का व्यावहाररक ज्ञान अर्जजत दकया। इस कािक्रम में

    आपने ५०००० स ेअलधक पाण्डुलिलपयों का Analytical Catalogue तैयार दकया।

    वर्ा १९५१ से १९६२ ई. प्रो. शमाा मरास लवश्वलवद्यािय में पहिे तो ‘शोध सहायक’ दफर ‘प्रवक्ता’ पद

    पर कायारत रह।े इस दौरान वे अन्ताराष्ट्रीय ख्यालतप्राप्त संस्कृतज्ञ प्रो. वी. राघवन ्के सम्पका में आए और उनके

    ददशा-लनदशेन में ही उनके प्रोजेक्ट Sanskrit Works and Authors (जो कािान्तर में New Catalogues

    Catalogorum के नाम स ेप्रलसद्ध हुआ) स ेदीघा काि तक जुड़ ेरह।े यही वह समय था जब गलित एवं िगोि के

    ‘केरि स्कूि’ के प्रलत जीवन-पयान्त चिन ेवाि ेजुनून ने आकार िेना शुरू दकया और आपने गलित, िगोि तथा

    ज्योलतर् से सम्बलन्धत दिुाभतम पाण्डुलिलपयों के संग्रह का कष्टसाध्य काया भी प्रारम्भ कर ददया। कष्टसाध्य इन

    अथों में दक संस्कृत एवं मियाळम भार्ा में लिलित कई महत्त्वपूिा हस्तलिलित ग्रन्थों को उन्होंन ेअपने लिए

    ‘प्रलतलिलप’ कराई और उन्हें संरलित दकया। यहााँ यह उल्िेि करना आवश्यक ह ैदक इन संगृहीत पाण्डुलिलपयों

    में गलित तथा िगोि स ेसम्बलन्धत कई महत्त्वपूिा हस्तलिलित ग्रन्थों का सम्पादन तथा अनुवाद कर प्रो. शमाा

    न ेइन लवर्यों पर उपिधध संस्कृत हस्तलिलित ग्रन्थों में संरलित गलित तथा िगोिशास्त्रीय सालहत्य के प्रलत तो

    लवद्वानों का ध्यान आकृष्ट दकया ही स्वयं इन लवर्यों पर प्राचीन भारतीय अध्ययन, लचन्तन तथा उसके

    योगदान की ओर भी लवश्व-गलित-समुदाय का ध्यान आकृष्ट दकया। इस शे्रिी में उनके द्वारा सम्पाददत तथा

    अनूददत कलतपय हस्तलिलित ग्रन्थ लनम्नवत् हैं- १. हररदत्त-कृत ‘ग्रहचारलनबन्धन’ जो दक परलहत गलित पर

    एक प्रकार की लववरलिका ह;ै २. गाग्या-केरि नीिकण्ठ सोमयालजन-्कृत ‘लसद्धान्तदपाि’, ३. संगमग्राम-लनवासी

    माधव द्वारा रलचत ‘वेण्वारोह’, ४. परमेश्वर-कृत ‘गोिदीलपका’, ५. परमेश्वर-कृत ‘ग्रहिाष्टक’ तथा ६. वररुलच-

    कृत ‘चन्रवाक्यालन’ आदद हस्तलिलित ग्रन्थों का सम्पादन तथा अनुवाद।

    वर्ा १९६२ ई. में प्रो. शमाा लवश्वेश्वरानन्द लवश्वबन्धु संस्कृत अनुसन्धान संस्थान (पंजाब लवश्वलवद्यािय)

    होलशयारपुर चिे आए। यहााँ उन्होंने इस संस्थान के ‘अनुसन्धान-लवभाग’ तथा ‘हस्तलिलित-ग्रन्थागार’ के

    संरिक के तौर पर उन्होंने अपनी प्रारलम्भक सेवाए ंदीं और कािान्तर में १९७५ से १९८० ई. तक वे इस

    अनुसन्धान संस्थान के लनदशेक पद पर लनयुक्त हुए। १९८१ से ८३ ई. तक वे पंजाब लवश्वलवद्यािय के उपयुाक्त

    इसी संस्थान में ऑनरेरी प्रोफेसर लनयुक्त हुए जबदक १९८० ई. में ही उन्हें भारत के लवशु्रत प्रकाशक मोतीिाि

    बनारसीदास न ेअपने संस्थान में Academic Advisor पद पर लनयुक्त कर ददया था लजसके कारि वे एक वर्ा

    तक उपयुाक्त प्रकाशन-संस्थान के वारािसी केन्र पर अपनी सेवाए ं दतेे रह।े प्रो. शमाा का पंजाब के उपयुाक्त

    संस्थान में प्रवास उनके वैयलक्तक गलितीय शोध तथा अनुसन्धान की दलृष्ट से बड़ा ही उपयोगी रहा और इस

    कािक्रम में ही उन्होंन ेगलित तथा िगोि के केरि-स्कूि से सम्बलन्धत ५० से अलधक महत्त्वपूिा, दिुाभ तथा

    अज्ञात हस्तलिलित ग्रन्थों का सम्पादन कर उन्हें प्रकालशत कराया लजनमें - परमेश्वर-कृत ‘दगृ्गलित’ (१९६३),

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 12

    नीिकण्ठ सोमयालजन-्रलचत ‘गोिसार’ (१९७०), भास्कराचाया-कृत ‘िीिावती’ एवं इस पर शंकर तथा

    नारायि की संयुक्त टीका ‘दक्रयाकमाकरी’ (१९७५) नीिकण्ठ-कृत ‘तन्िसंग्रह’ एवं इस पर शंकर-कृत

    ‘युलक्तदीलपका’ एवं ‘िघुवृलत्त’ नाम की टीका (१९७७), नीिकण्ठ सोमयालजन-्कृत ‘ज्योलतमीमांसा’ (१९७७),

    गलितयुक्तयः (प्रथम भाग) (१९७९) प्रमुि हैं तथा गलित एवं िगोि-शास्त्रीय लवर्यों पर स्वतंि शोधपरक

    ग्रन्थ लिि ेलजनमें A History of the Kerala School of Hindu Astronomy (१९७२), A Bibliography

    of Kerala and Kerala-based Astronomy and Astrology (१९७२) प्रमुि हैं।

    यहााँ यह उल्िेिनीय ह ैदक प्रो. शमाा द्वारा उपयुाक्त कािावलध में सम्पाददत गलित तथा िगोिशास्त्र से

    सम्बलन्धत महत्त्वपूिा तथा दिुाभ हस्तलिलित ग्रन्थों के मध्य ‘तन्िसंग्रह’ नीिकण्ठ द्वारा िगभग १५०० ई. में

    रलचत ग्रन्थ ह ै जो दक वास्तव में भारतीय िगोि-लवद्या की िगभग सभी महत्त्वपूिा ‘किनीय लवलधयों’ का

    व्यलस्थत प्रबन्ध ह।ै इसमें पारम्पररक भारतीय ‘ग्रहीय मॉडि’ महत्त्वपूिा संशोधनों, गोिीय िगोिशास्त्र की नई

    िाजों तथा शुद्ध पररिामों के साथ शालमि दकया गया ह।ै

    गलित तथा िगोिशास्त्रीय लवर्यों से प्रो. शमाा का िगाव इस तथ्य से सहज ही अनुलमत दकया जा

    सकता ह ैदक इन्हीं लवर्यों पर रातो-ददन अध्ययन, मनन-लचन्तन और िेिन करन ेके बावज़ूद अपनी उम्र के ५८

    वें वर्ा में उन्होंन े ‘पंजाब लवश्वलवद्यािय’ स े Contribution to the Study of the Kerala School of

    Astronomy and Mathematics शीर्ाक पर २०३४ पृष्ठों का प्रबन्ध प्रस्तुत कर १९७७ ई. में D. Lit. की

    उपालध प्राप्त की। इसी दौर में उन्होंने प्रो के. एस शुक्ि के सहयोग से ‘आयाभटीयम’् का अंगे्रजी अनुवाद दकया जो

    दक भारतीय िगोिशास्त्र एवं गलित के लवद्यार्जथयों तथा शोधार्जथयों के मानक सन्दभा ग्रन्थ ह।ै

    सन ् १९८३ ई. के बाद प्रो. शमाा में Adyar Library and Research Centre में Honorary

    Professor of Sanskrit के पद पर लनयुक्त हुए और यहााँ भी उन्होंने अपने पसन्दीदः लवर्य पर शोध एवं

    अनुसन्धान को जारी रिा। वर्ा १९९७ ई. में उन्होंन ेसंस्कृत-लशिि, प्राचीन भारतीय लवज्ञान और संस्कृलत के

    प्रोत्साहन के उद्दशे्य से Sree Sharada Education Society की स्थापना की और आजीवन इसके लनदशेक-पद

    की लज़म्मःदारी लनभात ेरह।े इस शोध केन्र से कई योग्य लवद्वान ्जुड़ ेरह ेऔर इसमें १२००० स ेअलधक ग्रन्थ व

    शोधपलिकाएं संगृहीत थीं लजनमें अलधकतर प्रो. शमाा का वैयलक्त संग्रह था और स्वयं उन्हीं के द्वारा दान दी गई

    थीं।

    १९८३ ई. के बाद उनके महत्त्वपूिा कायों में B. V. Subbarayappa के साथ Indian Astronomy: A

    Source Book (१९८४), T. S. Kupanna Sastri के साथ ‘िगध’ (िगधाचाया)-कृत ‘वेदांगज्योलतर्’ का

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 13

    अंगे्रज़ी अनुवाद (१९८५ ई.), T. S. Kupanna Sastri के साथ वाराहलमलहर-कृत ‘पञ्चलसद्धालन्तका’ का अंगे्रज़ी

    अनुवाद (१९९३ ई.) ह।ै

    सन ्१९९० ई. के बाद प्रो. शमाा के उल्िेिनीय कायों में ज्येष्ठदवे की कृलत ‘युलक्तभार्ा’ की मळयािी व

    संस्कृत में लिलित पाण्डुलिलप का सम्पादन तथा उसका अंगे्रजी अनुवाद शालमि ह।ै वास्तव में इसे प्रो. शमाा के

    जीवन का सबस ेमहत्त्वपूिा सम्पादन-काया और भारतीय गलित तथा िगोिशास्त्र को उनका अनुपम योगदान

    कहा जाना चालहए। ‘युलक्तभार्ा’ भारतीय गलित एवं िगोिशास्त्र को समर्जपत एक अलद्वतीय कृलत ह ै लजसमें

    ‘‘ज्या तथा कोज्या-फिन की अनन्त शे्रलियों में प्रसार’’ को लसद्ध दकया गया ह।ै इसके अलतररक्त अन्य महत्त्वपूिा

    भारतीय ग्रन्थों में ददए गए तत्सम्बन्धी पररिामों को इसमें उदाहरि दकेर लवस्तार से लसद्ध दकया गया ह।ै यहााँ

    हमारे पाठकों को यह जान कर गवा होगा दक ‘युलक्तभार्ा’ ही वह संस्कृत-कृलत ह ैलजसके प्रकाशन, अध्ययन तथा

    लवशे्लर्ि स े यह स्थालपत हो सका दक Calculus के महत्त्वपूिा पररिाम व प्रमेय भारतीयों को न्यूटन तथा

    िाइबलनर्टज़ से पहिे ज्ञात थे। जैसा दक हम ऊपर चचाा कर आए हैं दक प्रो. शमाा न ेइस ग्रन्थ की संस्कृत तथा

    मळयािम में उपिधध पाण्डुलिलपयों का लववेचनात्मक पाठ तैयार कर इसका सम्पादन दकया और अंगे्रज़ी-

    अनुवाद के साथ इसे प्रकालशत दकया; इस क्रम में यहााँ यह भी उल्िेिनीय ह ैदक इस काया में उन्होंने लवलवध

    िेिों के पारंगत लवद्वानों की भी सहायता िी लजनमें K. Ramsubramanian, M. D. Srinivas तथा M. S.

    Sriram आदद प्रमुि थे। यह महज़ एक संयोग था दक प्रो. शमाा ने इस युगस्मरिीय कृलत को अपनी मृत्यु से ठीक

    पहिे पूरा कर लिया और इसके बाद ही २००५ ई. में उनका लनधन हो गया।

    यूाँ तो प्रो. शमाा का समग्र जीवन ही संस्कृत में संरलित भारतीय वैज्ञालनक सालहत्य की पाण्डुलिलपयों के

    संरिि, सम्पादन तथा प्रकाशन में व्यतीत हुआ दकन्त ुउनके इन अमूल्य तथा स्मरिीय कायों में एक अवश्य

    उद्धरिीय काया ‘केरि और तलमिनाडु प्रान्तों में उपिधध संस्कृत-भार्ा में लिलित वैज्ञालनक सालहत्य के

    हस्तलिलित-ग्रन्थों का लववरिात्मक कोर्’ (Science Texts in Sanskrit in the Manuscripts

    Repositories of Kerala and Tamilanadu) ह ैलजसमें लवज्ञान तथा तकनीदक से सम्बलन्धत ३४७३ संस्कृत-

    पाण्डुलिलपयों का लववरि प्राप्त ह।ै

    परम्परागत संस्कृत-पालण्डत्य तथा वैदषु्य के कारि प्रो. शमाा ने गलित तथा िगोिशास्त्रों से इतर भी

    कई सांस्कृलतक, ऐलतहालसक, पुरातालत्त्वक, पौरालिक तथा इंडोिोलज़कि लवर्यों पर प्रामालिक िेिन दकया।

    और यही कारि ह ै दक South Carolina, U.S.A. से प्रकालशत Encyclopedia of Hinduism and Indic

    Religions में १४० शीर्ाकों पर, Dordrecht/Boston/London स े प्रकालशत Encyclopedia of the

    History of Science, Technology and Medicine in North-Western Cultures में ३८ शीर्ाकों पर

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 14

    तथा लिवेन्रम् स ेप्रकालशत ‘भारतीयशास्त्रमञ्जूर्ा’ में उनके २० वैदषु्य-पूिा आिेि सम्मान के साथ प्रकालशत

    दकए गए।

    Kerala School of Asrtology, Astronomy and Mathematics स े सम्बलन्धत कृलतयों (संस्कृत

    तथा मळयाि की पाण्डुलिलपयों) की ख़ोज, उनका अध्ययन, पाठ-सम्पादन तथा सम्पाददत संस्करिों के प्रकाशन

    द्वारा इस ओर सम्बलन्धत लवद्वानों का ध्यान आकृष्ट करत ेहुए समूचे लवश्व में इस तथ्य की युलक्तयुक्त स्थापना प्रो.

    शमाा के जीवन की सबसे बड़ी उपिलधध मानी जा सकती ह।ै यह इसी उपिलधध का नतीजा ह ैदक लवश्व-गलित

    तथा िगोि के इलतहासकारों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ और समग्र लवश्व में यह एकमत से लसद्ध हो सका दक

    मध्य-युग के अन्त में कम से कम भारत के दलििी लहस्से में गलित और िगोलिकी की परम्परा का लवकास हो

    रहा था।

    प्रो. शमाा ने अपने जीवन-काि में १०० से अलधक पुस्तकें तथा ५०० से अलधक शोध-पि प्रकालशत

    कराए लजनमें अलधकांश भारतीय गलित तथा िगोिशास्त्र स ेसम्बलन्धत हैं। इनके अलतररक्त समय समय पर

    उन्होंने उपयुाक्त लवर्यों से सम्बलन्धत कई ग्रन्थों की समीिा भी की थी लजनके बारे में कोई प्रामालिक जानकारी

    हमारे पास नहीं ह।ै वास्तव में प्रो. शमाा द्वारा उपयुाक्त रूप में दकया गया काया ‘भारतीय गलित तथा

    िगोिशास्त्र’ पर काया करन ेवाि ेलवद्याथी तथा अनुसलन्धत्सुओं के लिए न केवि मागादशान ह ैअलपतु उनके इस

    लवपुि वैज्ञालनक सालहत्य ने इस आगे आने वाि ेअनुसलन्धत्सुओं के लिए भलवष्य का मागा प्रशस्त कर ददया ह ै

    लजस पर चिकर इस लवर्य को एक गौरवशािी आकार ददया जा सकता ह।ै

    कृलतत्त्व

    जैसा दक हम बता चुके हैं दक प्रो. शमाा का कृलतत्व बहुत लवशाि ह ैऔर इसमें १०० स ेअलधक ग्रन्थ

    तथा ५०० स ेअलधक िेि समालहत हैं इस रूप में आपकी कृलतयों को हमारे पाठकों के समि उसी रूप में प्रस्तुत

    हमारे लिए करठन ह।ै इसलिए यहााँ हम आपकी उन्हीं कृलतयों की सूची प्रस्तुत कर रह े हैं लजनका सम्बन्ध

    ‘भारतीय गलित तथा िगोिशास्त्र’ से ह।ै

    * हस्तलिलित पाण्डुलिलपयों के सम्पादन स ेसम्बलन्धत ग्रन्थ

    १. अच्युत-कृत ‘रालशगोिस्फुटनीलत’। सम्पादन एवं अनुवाद। अड्यार िायब्रेरी एड्ं ररसचा सेंटर, मरास,

    १९५३ ई.।

    २. हररदत्त-कृत ‘ग्रहचारलनबन्धन’ (परलहत गलित पर एक प्रकार की लववरलिका)। सम्पादन। म.म. कुप्पुस्वामी

    शास्त्री ररसचा सेंटर, मरास, १९५४ ई.।

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 15

    ३. हररदत्त-कृत ‘ग्रहचारलनबन्धनसंग्रह’। उपररवत् १९५५ ई.।

    ४. गाग्या-केरि नीिकण्ठ सोमयालजन-्कृत ‘लसद्धान्तदपाि’। सम्पादन। इस ग्रन्थ के अन्त में आपने दो पररलशष्ट

    १. ‘लसद्धान्तदपािे अलसद्धपयाायादयः’ तथा २. ‘लसद्धान्तदपािस्थ-पयाायभूददनालन’ प्रकालशत दकए हैं जो ग्रन्थ

    की महत्ता और उपयोलगता को प्रकालशत करत ेहैं। अड्यार िायब्रेरी, मरास, १९५५ ई.।

    ५. सगंमग्राम-लनवासी माधव द्वारा रलचत ‘वेण्वारोह’ नामक ग्रन्थ एवं इस पर अच्युत नामा लवद्वान ् द्वारा

    मियाळम में लिलित टीका। सम्पादन। संस्कृत कॉिेज, लतरुअनन्तपुरम्, १९५६ ई.।

    ६. ‘दगृ्वेण्वारोह’। उपररवत्। सम्पादन। संस्कृत कॉिेज लतरुवनन्तपुरम्, १९५६ ई.।

    ७. परमेश्वर-कृत ‘गोिदीलपका’। सम्पादन एवं अनुवाद। अड्यार िाब्रेरी, मरास, १९५७ ई.।

    ८. परमेश्वर-कृत ‘ग्रहिाष्टक’। सम्पादन एवं अनुवाद। कुप्पुस्वामी ररसचा सेंटर, मरास, १९५९ ई.।

    ९. वररुलच-कृत ‘चन्रवाक्यालन’। सम्पादन एवं अनुवाद। उपररवत,् मरास, १९६२ ई.।

    १०. ‘कुजाददपञ्चग्रहमहावाक्यालन’। सम्पादन। उपररवत्, मरास, १९६२ ई.।

    ११. ‘वाक्यकरि’ (सुन्दरराज-कृत ‘िघुप्रकालशका’-टीका सलहत)। सम्पादन। उपररवत्, १९६२ ई.।

    १२. ‘परमेश्वर’-कृत ‘दगृ्गलित’। सम्पादन। लवश्वेश्वरानन्द इंस्टीट्यूट, होलशयारपुर, १९६३ ई.।

    १३. ‘परमेश्वर’-कृत ‘ग्रहिामण्डनम्’। सम्पादन एवं अनुवाद। उपररवत्,१९६५ ई.।

    १४. ‘परमेश्वर’-कृत ‘ग्रहिन्यायदीलपका’। सम्पादन एवं अनुवाद। उपररवत्, १९६६ ई.।

    १५. नीिकण्ठ सोमयालजन-्कृत ‘गोिसार’। सम्पादन एवं अनुवाद। उपररवत्, १९७० ई.।

    १६. संग्रमग्राम-लनवासी माधव-कृत ‘चन्रस्फुटालप्त’। सम्पादन एवं अनुवाद। उपररवत्, १९७३ ई.।

    १७. अच्युत-कृत ‘स्फुटलनिायतन्ि’। स्वोपज्ञ टीका। सम्पादन। उपररवत्, १९७४ ई.।

    १८. अच्युत लपशरेरट-कृत ‘छायाशतक’ (उपयुाक्त ‘स्फुटलनिायतन्ि’ पर पररलशष्ट)। उपररवत्, १९७४ ई.।

    १९. भाष्कराचाया-कृत ‘िीिावती’ एवं इस पर ‘शंकर’ एवं ‘नारायि’-कृत ‘दक्रयाकमाकरी’ टीका। सम्पादन।

    उपररवत्, १९७५ ई.।

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 16

    २०. आयाभट्ट-कृत ‘आयाभटीयम’्। सम्पादन एवं अंगे्रज़ी अनुवाद। इंलडयन नेशनि साइंस अकादमी, नई ददल्िी,

    १९७६ ई.।

    २१. अच्युत-कृत ‘रालशगोिस्फुटनीलत’। सम्पादन एवं अंगे्रज़ी अनुवाद। लवश्वेश्वरानन्द ररसचा इंलस्टट्यूट,

    होलशयारपुर, १९७७ ई.।

    २२. नीिकण्ठ-कृत ‘तन्िसंग्रह’। सम्पादन एवं अंगे्रज़ी अनुवाद। उपररवत्, १९७७ ई.।

    २३. नीिकण्ठ सोमयालजन-्कृत ‘ज्योलतमीमांसा’। सम्पादन। उपररवत्, १९७७ ई.।

    २४. ‘नालिकमलियुटे युलक्त’। सम्पादन। प्राचीनकेरिी अंक-२५ १९९१ ई.। ओरयंटि ररसचा इंलस्टट्यूट,

    लिवेन्रम्, केरि यूलनवर्जसटी।

    २५. वराहलमलहर-कृत ‘पञ्चलसद्धालन्तका’। सम्पादन एवं अंगे्रज़ी अनुवाद। मरास, १९९३ ई.।

    २६. शंकरवमान्-कृत ‘सरत्नमािा’। सम्पादन एवं अंगे्रज़ी अनुवाद। IJHS 36, २००१ ई.।

    २७. नीिकण्ठ सोमयालजन-्कृत ‘ग्रहपरीिाकमा’। सम्पादन एवं मळयािम टीका। २००६ तक अप्रकालशत। पे्रस

    कॉपी तैयार।

    २८. वराहलमलहर-कृत ‘वृहत्संलहता’ एवं इस पर कुमारात्मज भाष्करयोलग-कृत ‘उत्पिपररमि’ टीका। सम्पादन।

    २००६ तक राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, ददल्िी से प्रकाशनाधीन।

    २९. शंकरवमान्-कृत ‘सरत्नमािा’ एवं इस पर स्वयं िेिक द्वारा मळयािम-टीका। सम्पादन। २००६ तक राष्ट्रीय

    ससं्कृत संस्थान, ददल्िी स ेप्रकाशनाधीन।

    गलित तथा िगोि स ेसम्बलन्धत संस्कृत-हस्तलिलित-ग्रन्थों के सम्पादन-परक प्रो. शमाा के कुछ ग्रन्थ

    और हो सकत ेहैं लजनकी बाबत प्रस्तुत पंलक्तयों का िेिक अभी िोज में िगा हुआ ह।ै मृत्यु से पूवा उन्होंने कई

    हस्तलिलित ग्रन्थों का सम्पाददत संस्करि तेयार कर ददया था और उन्हें दशे के लवलभन्न प्रलतलष्ठत संस्थानों को

    प्रकालशत करन ेहतेु सौंप ददया था। इनमें दकतनी कृलतयााँ प्रकालशत हुईं और दकतनी नहीं यह अभी अनुसन्धान

    का लवर्य ह।ै

    गलित तथा िगोिशास्त्र पर स्वतंि रूप स ेलिि ेगए ग्रन्थ

    1. A history of the Kerala School of Hindu Astronomy, Hoshiarpu, Vishveshvaranand Institute, 1972.

    2. A Bibliography of Kerala and Kerala-based Astronomy and Astrology, Hoshiarpu, Vishveshvaranand

    Institute, 1972.

  • Pratnakirti, vol.-2, Issue-1, January-March 2015 ISSN 2322-0694

    www.pratnakirti.com 17

    3. Contributions to the Study of the Kerala School of Astronomy and Mathematics (D.Litt. Thesis), Chandigarh, Panjab University, 1977.

    4. Indian Astronomy: A Source Book, Bombay, Nehru Centre, 1984.

    5. History of Astronomy in India: A Survey of Source Materials, New Delhi, Indian National Science Academy, 1986.

    6. Observational Astronomy in India, Calicut, Dept. of Sanskrit, University of Calicut, 1990.

    7. Science Texts in Sanskrit in the Manuscripts Repositories of Kerala and Tamilnadu, New Delhi, Rashtriya Sanskrit Sansthan, 2002.

    8. Contribution of Kerala to Scientific and Technical Literature. (to be published).

    के. वी. शमाा द्वारा लिलित शोधपि सालहत्य

    जैसा दक हम बता आए हैं दक शमाा जी आजीवन भारतीय गलित तथा िगोिशास्त्रीय हस्तलिलित

    ग्रन्थों की िोज, अध्ययन, पाठािोचन तथा सम्पादन में अलवश्रान्त रूप से िगे रह ेफितः उन्होंन ेसमय समय

    पर अपनी िोज में उपिधध हस्तलिलित ग्रन्थों का लवशे्लर्िात्मक अध्ययन कर उन पर कई शोधपि प्रकालशत

    दकए। ऐसे शोधपिों की कोई लनलश्चत संख्या अभी तक नहीं मािूम, दकन्तु उनके कतृात्व के रूप में लजन शोधपिों

    का संचय दकया जा सका ह ैउनकी संख्या ५०० से अलधक ह।ै

    शोधपिों की इतनी भारी सखं्या के कारि हम पाठकों से अनुरोध करेंगे दक वे शमाा जी के इन शोधपिों

    के लवर्य में लवस्तार से जानने हते ुIndian Journal of History of Science, vol.-41, Issue-2, 2006 A.D.

    pp. 231-246 शीर्ाक शोधपि की सहायता िें लजसमें उनके अलधकांश महत्त्वपूिा शोधपिों की सूचना समालहत

    हो चुकी ह।ै यह शोधपि ऑन-िाइन भी पढा जा सकता ह।ै

    सन्दभा-ग्रन्थ-सचूी

    1. Obituary, K. V. Sharma (1919-2008), 2006, Indian Journal of History of Science, Vol.-

    41, Issue-2, pp. 231-246. New Delhi.

    2. Sri Ram, M. S. (author), Sheshadri, C. S. (editor), Bibliographical Sketch of K. V.

    Sharma, 2010 A. D., Studies in History of Indian Mathematics, Hindustan Book

    Agency,new Delhi.

    3. Plafker, Kim (author), 2008 A.D., Mathematics in India; 500 BCE-1800 CE, Princeton

    University Press.