कल्पना की उड़ान - सूरदास का जीवन · web...

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सससससस सस सससस Posted by: सससससस- ससससससस सससससस on: January 16, 2008 In: सससससस Comment! सससससस सस सससससससस ससस ससससससससस सस सससस ससस ससससससससस ससस ससससस सस “ससससससस सससस’ ससस सस सससस सससस सससस सससस ससससससस ससससससस सससस सस सससस-ससस सस ससससससस ससस ससससस सस ससससस सससस सससस सस सस ससस ससस सससससससस सस सससस सससस ससससस ससस ।। सससस सससस ससससससससस सस ससससस १६०७ सससससस सस, सससस “ससससससस सससस’ सस सससस ससस ससससस १६०७ सससससस सससससस सस सस सस सससससस ससससस सस सस ससस सस सससस सससस ससससससससससस सस - सससससस सस सससस सस१५३५ सससस सससस ससससस सस, ससससससस ससससस ससससससससस ससस ससस ससससससस सस सस ससससससससससस सससससस सस सस ससस ससस सस सस ससससससससससस सस सससस सससस ससससस सस सससससस ससससस सससससस सस ससस ससससससस सससससस सस सससस-सससस ससससस सससससस ससससस, ससससस १५३५ सससससससस ससस सससस सससससस सससससससस सस सससस सस सससस सससससस ससससस १६२० सस १६४८ सससस सससस ससससससस सससस सससस ससससससससससस ससससस सस सस सससससससस सससससस सस सससस ससससस १५४० सससस ससससससस सस सससससस ससससस १६२० सससस ससससस सससस सससस सससससस सससस ससससस सससससस सससससस सससस ससस ससससससससससस सस ससस “सससससससससस’ सस सससससस सस ससस ६७ सससस सस‘सससससस सससससस सस सससससस’ सस सससस सस सससस सससस सससससस सससस सससस सस ससससससस (ससससससस सससस ससससससससससस) ससस ससस ससससससस सस सससस सस ससस ससससस सस सस ससससस सससस ससससससससससससस सस सससस सससस सससस सस ससस सस“ससससससससस’ ससस ससस सस सससस ससससस सससस सससस ससससस ससससस ससस सससस ससससससस सससससससस सस सस सससस सस सससस सस“सससस ससससस’ ससस (ससससस १६५३ सस) ससस “ससससससस- सससससस’ सस सससससस सससससस सस सससस सस सससससस सससससससससस ससस सससस सससससस ससससस सससस ससससससससस सस सस सस सस ससस सस सससस सससस सससस ससससस ससस

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सूरदास का जीवन

सूरदास का जीवन

Posted by: संपादक- मिथिलेश वामनकर on: January 16, 2008

· In: सूरदास

· Comment!

सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। “साहित्य लहरी’ सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है -

मुनि पुनि के रस लेख ।

दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख ।।

इसका अर्थ विद्वानों ने संवत् १६०७ वि० माना है, अतएव “साहित्य लहरी’ का रचना काल संवत् १६०७ वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री बल्लभाचार्य थे -

सूरदास का जन्म सं० १५३५ वि० के लगभग ठहरता है, क्योंकि बल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् १५३५ वि० समीचीन जान पड़ती है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् १६२० से १६४८ वि० के मध्य स्वीकार किया जाता है।

 

रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् १५४० वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् १६२० वि० के आसपास माना जाता है।

 

श्री गुरु बल्लभ तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो।

सूरदास की आयु “सूरसारावली’ के अनुसार उस समय ६७ वर्ष थी। ‘चौरासी वैष्णव की वार्ता’ के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। “भावप्रकाश’ में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे। “आइने अकबरी’ में (संवत् १६५३ वि०) तथा “मुतखबुत-तवारीख’ के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।

जन्म स्थान

 

अधिक विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे।

 

खंजन नैन रुप मदमाते ।

अतिशय चारु चपल अनियारे,

पल पिंजरा न समाते ।।

चलि - चलि जात निकट स्रवनन के,

उलट-पुलट ताटंक फँदाते ।

“सूरदास’ अंजन गुन अटके,

नतरु अबहिं उड़ जाते ।।

क्या सूरदास अंधे थे ?

सूरदास श्रीनाथ भ की “संस्कृतवार्ता मणिपाला’, श्री हरिराय कृत “भाव-प्रकाश”, श्री गोकुलनाथ की “निजवार्ता’ आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।

 

श्यामसुन्दरदास ने इस सम्बन्ध में लिखा है - “”सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि श्रृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।” डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - “”सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।

 

 

 

सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं -

१ सूरसागर

२ सूरसारावली

३ साहित्य-लहरी

४ नल-दमयन्ती और

५ ब्याहलो।

उपरोक्त में अन्तिम दो अप्राप्य हैं।

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के १६ ग्रन्थों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।

 

सूरसागर

सूरसागर में लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हजार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनका प्रतिलिपि काल संवत् १६५८ वि० से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक है इनमें प्राचीनतम प्रतिलिपि नाथद्वारा (मेवाड़) के “सरस्वती भण्डार’ में सुरक्षित पायी गई हैं।

 

सूरसागर सूरदासजी का प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें प्रथ्#ंम नौ अध्याय संक्षिप्त है, पर दशम स्कन्ध का बहुत विस्तार हो गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग “कृष्ण की बाल-लीला’ और “भ्रमर-गीतसार’ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

 

सूरसागर की सराहना करते हुए डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - “”काव्य गुणें की इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौन्दर्य है। वह उस रमणीय उद्यान के समान नहीं जिसका सौन्दर्य पद-पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाता है, बल्कि उस अकृत्रिम वन-भूमि की भाँति है जिसका रचयिता रचना में घुलमिल गया है।” दार्शनिक विचारों की दृष्टि से “भागवत’ और “सूरसागर’ में पर्याप्त अन्तर है।

 

सूर सारावली

इसमें ११०७ छन्द हैं। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ एक “वृहद् होली’ गीत के रुप में रचित हैं। इसकी टेक है - “”खेलत यह विधि हरि होरी हो, हरि होरी हो वेद विदित यह बात।” इसका रचना-काल संवत् १६०२ वि० निश्चित किया गया है, क्योंकि इसकी रचना सूर के ६७वें वर्ष में हुई थी।

 

साहित्य लहरी

यह ११८ पदों की एक लघु रचना है। इसके अन्तिम पद में सूरदास का वंशवृक्ष दिया है, जिसके अनुसार सूरदास का नाम सूरजदास है और वे चन्दबरदायी के वंशज सिद्ध होते हैं। अब इसे प्रक्षिप्त अंश माना गया है ओर शेष रचना पूर्ण प्रामाणिक मानी गई है। इसमें रस, अलंकार और नायिका-भेद का प्रतिपादन किया गया है। इस कृति का रचना-काल स्वयं कवि ने दे दिया है जिससे यह संवत् विक्रमी में रचित सिद्ध होती है। रस की दृष्टि से यह ग्रन्थ विशुद्ध श्रृंगार की कोटि में आता है।

सूरदास की रचनाएँ

Posted by: संपादक- मिथिलेश वामनकर on: January 16, 2008

· In: सूरदास

· Comment!

1  

अंखियां हरि-दरसन की प्यासी।

देख्यौ चाहति कमलनैन कौ¸ निसि-दिन रहति उदासी।।

आए ऊधै फिरि गए आंगन¸ डारि गए गर फांसी।

केसरि तिलक मोतिन की माला¸ वृन्दावन के बासी।।

काहू के मन को कोउ न जानत¸ लोगन के मन हांसी।

सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ¸ करवत लैहौं कासी।।

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2

निसिदिन बरसत नैन हमारे।

सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबते स्याम सिधारे।।

अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे।

कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहुँ, उर बिच बहत पनारे॥

आँसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे।

‘सूरदास’ अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥

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3

मधुकर! स्याम हमारे चोर।

मन हरि लियो सांवरी सूरत¸ चितै नयन की कोर।।

पकरयो तेहि हिरदय उर-अंतर प्रेम-प्रीत के जोर।

गए छुड़ाय छोरि सब बंधन दे गए हंसनि अंकोर।।

सोबत तें हम उचकी परी हैं दूत मिल्यो मोहिं भोर।

सूर¸ स्याम मुसकाहि मेरो सर्वस सै गए नंद किसोर।।

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4

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।

तब ये लता लगति अति सीतल¸ अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं।

बृथा बहति जमुना¸ खग बोलत¸ बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।

पवन¸ पानी¸ धनसार¸ संजीवनि दधिसुत किरनभानु भई भुंजैं।

ये ऊधो कहियो माधव सों¸ बिरह करद करि मारत लुंजैं।

सूरदास प्रभु को मग जोवत¸ अंखियां भई बरन ज्यौं गुजैं।

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5

प्रीति करि काहू सुख न लह्यो।

प्रीति पतंग करी दीपक सों आपै प्रान दह्यो।।

अलिसुत प्रीति करी जलसुत सों¸ संपति हाथ गह्यो।

सारंग प्रीति करी जो नाद सों¸ सन्मुख बान सह्यो।।

हम जो प्रीति करी माधव सों¸ चलत न कछू कह्यो।

‘सूरदास’ प्रभु बिन दुख दूनो¸ नैननि नीर बह्यो।।

 

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6 राग गौरी

 

कहियौ, नंद कठोर भये।

हम दोउ बीरैं डारि परघरै, मानो थाती सौंपि गये॥

तनक-तनक तैं पालि बड़े किये, बहुतै सुख दिखराये।

गो चारन कों चालत हमारे पीछे कोसक धाये॥

ये बसुदेव देवकी हमसों कहत आपने जाये।

बहुरि बिधाता जसुमतिजू के हमहिं न गोद खिलाये॥

कौन काज यहि राजनगरि कौ, सब सुख सों सुख पाये।

सूरदास, ब्रज समाधान करु, आजु-काल्हि हम आये॥

भावार्थ :- श्रीकृष्ण अपने परम ज्ञानी सखा उद्धव को मोहान्ध ब्रजवासियों में ज्ञान प्रचार करने के लिए भेज रहे हैं। इस पद में नंद बाबा के प्रति संदेश भेजा है। कहते है:- “बाबा , तुम इतने कठोर हो गये हो कि हम दोनों भाइयों को पराये घर में धरोहर की भांति सौंप कर चले गए। जब हम जरा-जरा से थे, तभी से तुमने हमें पाल-पोसकर बड़ा किया, अनेक सुख दिए। वे बातें भूलने की नहीं। जब हम गाय चराने जाते थे, तब तुम एक कोस तक हमारे पीछे-पीछे दौड़ते चले आते थे। हम तो बाबा, सब तरह से तुम्हारे ही है। पर वसुदेव और देवकी का अनधिकार तो देखो। ये लोग नंद-यशोदा के कृष्ण-बलराम को आज “अपने जाये पूत” कहते हैं। वह दिन कब होगा, जब हमें यशोदा मैया फिर अपनी गोद में खिलायेंगी। इस राजनगरी, मथुरा के सुख को लेकर क्या करें ! हमें तो अपने ब्रज में ही सब प्रकार का सूख था। उद्धव, तुम उन सबको अच्छी तरह से समझा-बुझा देना, और कहना कि दो-चार दिन में हम अवश्य आयेंगे।”

 

शब्दार्थ :- बीरैं =भाइयों को। परघरै =दूसरे के घर में। थाती = धरोहर। तनक-तनक तें =छुटपन से। कोसक =एक कोस तक। समाधान =सझना, शांति

 

 

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7 राग सारंग

 

नीके रहियौ जसुमति मैया।

आवहिंगे दिन चारि पांच में हम हलधर दोउ भैया॥

जा दिन तें हम तुम तें बिछुरै, कह्यौ न कोउ `कन्हैया’।

कबहुं प्रात न कियौ कलेवा, सांझ न पीन्हीं पैया॥

वंशी बैत विषान दैखियौ द्वार अबेर सबेरो।

लै जिनि जाइ चुराइ राधिका कछुक खिलौना मेरो॥

कहियौ जाइ नंद बाबा सों, बहुत निठुर मन कीन्हौं।

सूरदास, पहुंचाइ मधुपुरी बहुरि न सोधौ लीन्हौं॥

 

भावार्थ :- `कह्यौ न कोउ कन्हैया’ यहां मथुरा में तो सब लोग कृष्ण और यदुराज के नाम से पुकारते है, मेरा प्यार का `कन्हैया’ नाम कोई नहीं लेता। `लै जिनि जाइ चुराइ राधिका’ राधिका के प्रति 12 बर्ष के कुमार कृष्ण का निर्मल प्रेम था,यह इस पंक्ति से स्पष्ट हो जाता है।राधा कहीं मेरा खिलौना न चुरा ले जाय, कैसी बालको-चित सरलोक्ति है।

 

शब्दार्थ :- नीके रहियौ = कोई चिम्ता न करना। न पीन्हीं पैया = ताजे दूध की धार पीने को नहीं मिली। बिषान = सींग, (बजाने का)। अबेर सबेरी = समय-असमय, बीच-बीच में जब अवसर मिले। सोधौ =खबर भी

 

 

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8 राग देश

 

जोग ठगौरी ब्रज न बिकहै।

यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥

दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥

मूरी के पातन के कैना को मुकताहल दैहै।

सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥

 

भावार्थ :- उद्धव ने कृष्ण-विरहिणी ब्रजांगनाओं को योगभ्यास द्वारा निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए जब उपदेश दिया, तो वे ब्रजवल्लभ उपासिनी गोपियां कहती हैं कि इस ब्रज में तुम्हारे योग का सौदा बिकने का नहीं। जिन्होंने सगुण ब्रह्म कृष्ण का प्रेम-रस-पान कर लिया, उन्हें तुम्हारे नीरस निर्गुण ब्रह्म की बातें भला क्यों पसन्द आने लगीं ! अंगूर छोड़कर कौन मूर्ख निबोरियां खायगा ? मोतियों को देकर कौन मूढ़ बदले में मूली के पत्ते खरीदेगा ? योग का यह ठग व्यवसाय प्रेमभूमि ब्रज में चलने का नहीं।

 

शब्दार्थ :- ठगौरी = ठगी का सौदा। एसोइ फिरि जैहैं = योंही बिना बेचे वापस ले जाना होगा। जापै = जिसके लिए। उर न समैहै = हृदय में न आएगा। निबौरी =नींम का फल। मूरी = मूली। केना =अनाज के रूप में साग-भाजी की कीमत, जिसे देहात में कहीं-कहीं देकर मामूली तरकारियां खरीदते थे। मुकताहल = मोती। निर्गुन =सत्य, रज और तमोगुण से रहित निराकार ब्रह्म

 

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9 राग टोडी

 

ऊधो, होहु इहां तैं न्यारे।

तुमहिं देखि तन अधिक तपत है, अरु नयननि के तारे॥

अपनो जोग सैंति किन राखत, इहां देत कत डारे।

तुम्हरे हित अपने मुख करिहैं, मीठे तें नहिं खारे॥

हम गिरिधर के नाम गुननि बस, और काहि उर धारे।

भावार्थ :- `तुमहि…..तारे,’ तुम जले पर और जलाते हो, एक तो कृष्ण की विरहाग्नि से हम योंही जली जाती है उस पर तुम योग की दाहक बातें सुना रहे हो। आंखें योंही जल रही है। हमारे जिन नेत्रों में प्यारे कृष्ण बस रहे हैं, उनमें तुम निर्गुण निराकार ब्रह्म बसाने को कह रहे हो। `अपनो….डारें’, तुम्हारा योग-शास्त्र तो एक बहुमूल्य वस्तु है, उसे हम जैसी गंवार गोपियों के आगे क्यों व्यर्थ बरबाद कर रहे हो। `तुम्हारे….खारे,’ तुम्हारे लिए हम अपने मीठे को खारा नहीं कर सकतीं, प्यारे मोहन की मीठी याद को छोड़कर तुम्हारे नीरस निर्गुण ज्ञान का आस्वादन भला हम क्यों करने चलीं ?

 

शब्दार्थ :- न्यारे होहु = चले जाओ। सैंति = भली-भांति संचित करके।खोटे = बुरे

 

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10 राग केदारा

फिर फिर कहा सिखावत बात।प्रात काल उठि देखत ऊधो, घर घर माखन खात॥जाकी बात कहत हौ हम सों, सो है हम तैं दूरि।इहं हैं निकट जसोदानन्दन प्रान-सजीवनि भूरि॥बालक संग लियें दधि चोरत, खात खवावत डोलत।सूर, सीस नीचैं कत नावत, अब नहिं बोलत॥

 

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11 राग रामकली

 

उधो, मन नाहीं दस बीस।

एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥

सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।

स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥

तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।

सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥

 

टिप्पणी :- गोपियां कहती है, `मन तो हमारा एक ही है, दस-बीस मन तो हैं नहीं कि एक को किसी के लगा दें और दूसरे को किसी और में। अब वह भी नहीं है, कृष्ण के साथ अब वह भी चला गया। तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना अब किस मन से करें ?” `स्वासा….बरीस,’ गोपियां कहती हैं,”यों तो हम बिना सिर की-सी हो गई हैं, हम कृष्ण वियोगिनी हैं, तो भी श्याम-मिलन की आशा में इस सिर-विहीन शरीर में हम अपने प्राणों को करोड़ों वर्ष रख सकती हैं।” `सकल जोग के ईस’ क्या कहना, तुम तो योगियों में भी शिरोमणि हो। यह व्यंग्य है।

 

शब्दार्थ :- हुतो =था। अवराधै = आराधना करे, उपासना करे। ईस =निर्गुण ईश्वर। सिथिल भईं = निष्प्राण सी हो गई हैं। स्वासा = श्वास, प्राण। बरीश = वर्ष का अपभ्रंश। पुरवौ मन = मन की इच्छा पूरी करो

 

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12 राग टोडी

 

अंखियां हरि-दरसन की भूखी।

कैसे रहैं रूप-रस रांची ये बतियां सुनि रूखी॥

अवधि गनत इकटक मग जोवत तब ये तौ नहिं झूखी।

अब इन जोग संदेसनि ऊधो, अति अकुलानी दूखी॥

बारक वह मुख फेरि दिखावहुदुहि पय पिवत पतूखी।

सूर, जोग जनि नाव चलावहु ये सरिता हैं सूखी॥

भावार्थ :- `अंखियां… रूखी,’ जिन आंखों में हरि-दर्शन की भूल लगी हुई है, जो रूप- रस मे रंगी जा चुकी हैं, उनकी तृप्ति योग की नीरस बातों से कैसे हो सकती है ? `अवधि…..दूखी,’ इतनी अधिक खीझ इन आंखों को पहले नहीं हुई थी, क्योंकि श्रीकृष्ण के आने की प्रतीक्षा में अबतक पथ जोहा करती थीं। पर उद्धव, तुम्हारे इन योग के संदेशों से इनका दुःख बहुत बढ़ गया है। `जोग जनि…सूखी,’ अपने योग की नाव तुम कहां चलाने आए हो? सूखी रेत की नदियों में भी कहीं नाव चला करती है? हम विरहिणी ब्रजांगनाओं को क्यों योग के संदेश देकर पीड़ित करते हो ? हम तुम्हारे योग की अधिकारिणी नहीं हैं।

 

शब्दार्थ :- रांची =रंगी हुईं अनुरूप। अवधि = नियत समय। झूखी = दुःख से पछताई खीजी। दुःखी =दुःखित हुई। बारक =एक बार। पतूखी =पत्तेश का छोटा-सा दाना

 

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13 राग मलार

 

ऊधो, हम लायक सिख दीजै।

यह उपदेस अगिनि तै तातो, कहो कौन बिधि कीजै॥

तुमहीं कहौ, इहां इतननि में सीखनहारी को है।

जोगी जती रहित माया तैं तिनहीं यह मत सोहै॥

कहा सुनत बिपरीत लोक में यह सब कोई कैहै।

देखौ धौं अपने मन सब कोई तुमहीं दूषन दैहै॥

चंदन अगरु सुगंध जे लेपत, का विभूति तन छाजै।

सूर, कहौ सोभा क्यों पावै आंखि आंधरी आंजै॥

 

भावार्थ :- `हम लायक,’ हमारे योग्य, हमारे काम की। अधिकारी देखकर उपदेश दो। `कहौ …कीजै,’ तुम्हीं बताओ, इसे किस तरह ग्रहण करे ? `विपरीत’ उलटा, स्त्रियों को भी कठिन योगाभ्यास की शिक्षा दी जा रही है, यह विपरीत बात सुनकर संसार क्या कहेगा ? `आंखि आंधरी आंजै’ अंधी स्त्री यदि आंखों में काजल लगाए तो क्या वह उसे शोभा देगा ? इसी प्रकार चंदन और कपूर का लेप करने वाली कोई स्त्री शरीर पर भस्म रमा ले तो क्या वह शोभा पायेगी ?

 

शब्दार्थ :- सिख = शिक्षा, उपदेश। तातो =गरम। जती =यति, संन्यासी। यह मत सोहै = यह निर्गुणवाद शोभा देता है। कैहै =कहेगा। चंदन अगरु = मलयागिर चंदन विभूति =भस्म, भभूत। छाजै =सोहती है

 

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14 राग सारंग

 

ऊधो, मन माने की बात।

दाख छुहारो छांड़ि अमृतफल, बिषकीरा बिष खात॥

जो चकोर कों देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात।

मधुप करत घर कोरि काठ में, बंधत कमल के पात॥

ज्यों पतंग हित जानि आपुनो दीपक सो लपटात।

सूरदास, जाकौ जासों हित, सोई ताहि सुहात॥

 

टिप्पणी :- `अंगार अघात,’ तजि अंगार न अघात’ भी पाठ है उसका भी यही अर्थ होता है, अर्थात अंगार को छोड़कर दूसरी चीजों से उसे तृप्ति नहीं होती। `तजि अंगार कि अघात’ भी एक पाठान्तर है। उसका भी यही अर्थ है।

 

शब्दार्थ :- `अंगार अघात,’ =अंगारों से तृप्त होता है , प्रवाद है कि चकोर पक्षी अंगार चबा जाता है। कोरि =छेदकर। पात =पत्ता

 

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15 राग काफी

 

निरगुन कौन देश कौ बासी।

मधुकर, कहि समुझाइ, सौंह दै बूझति सांच न हांसी॥

को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी।

कैसो बरन, भेष है कैसो, केहि रस में अभिलाषी॥

पावैगो पुनि कियो आपुनो जो रे कहैगो गांसी।

सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठगो-सौ सूर सबै मति नासी॥

 

 

टिप्पणी :- गोपियां ऐसे ब्रह्म की उपासिकाएं हैं, जो उनके लोक में उन्हीं के समान रहता हो, जिनके पिता भी हो, माता भी हो और स्त्री तथा दासी भी हो। उसका सुन्दर वर्ण भी हो, वेश भी मनमोहक हो और स्वभाव भी सरस हो। इसी लिए वे उद्धव से पूछती हैं, ” अच्छी बात है, हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म से प्रीति जोड़ लेंगी, पर इससे पहले हम तुम्हारे उस निर्गुण का कुछ परिचय चाहती हैं। वह किस देश का रने वाला है, उसके पिता का क्या नाम है, उसकी माता कौन है, कोई उसकी स्त्री भी है, रंग गोरा है या सांवला, वह किस देश में रहता है, उसे क्या-क्या वस्तुएं पसंद हैं, यह सब बतला दो। फिर हम अपने श्यामसुन्दर से उस निर्गुण की तुलना करके बता सकेंगी कि वह प्रीति करने योग्य है या नहीं।” `पावैगो….गांसी,’ जो हमारी बातों का सीधा-सच्चा उत्तर न देकर चुभने वाली व्यंग्य की बाते कहेगा, उसे अपने किए का फल मिल जायगा।

 

शब्दार्थ :- निरगुन = त्रिगुण से रहित ब्रह्म। सौंह =शपथ, कसम। बूझति =पूछती हैं। जनक =पिता। वरन =वर्ण, रंग। गांसी = व्यंग, चुभने वाली बात

 

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16 राग नट

 

कहियौ जसुमति की आसीस।

जहां रहौ तहं नंदलाडिले, जीवौ कोटि बरीस॥

मुरली दई, दौहिनी घृत भरि, ऊधो धरि लई सीस।

इह घृत तौ उनहीं सुरभिन कौ जो प्रिय गोप-अधीस॥

ऊधो, चलत सखा जुरि आये ग्वाल बाल दस बीस।

अबकैं ह्यां ब्रज फेरि बसावौ सूरदास के ईस॥

 

टिप्पणी :- `जहां रहौं…बरीस,’ “प्यारे नंदनंदन, तुम जहां भी रहो, सदा सुखी रहो और करोड़ों वर्ष चिरंजीवी रहो। नहीं आना है, तो न आओ, मेरा वश ही क्या ! मेरी शुभकामना सदा तुम्हारे साथ बनी रहेगी, तुम चाहे जहां भी रहो।” `मुरली…सीस,’ यशोदा के पास और देने को है ही क्या, अपने लाल की प्यारी वस्तुएं ही भेज रही हैं- बांसुरी और कृष्ण की प्यारी गौओं का घी। उद्धव ने भी बडे प्रेम से मैया की भेंट सिरमाथे पर ले ली।

शब्दार्थ कोटि बरीस =करोड़ों वर्ष। दोहिनी =मिट्टी का बर्तन, जिसमें दूध दुहा जाता है, छोटी मटकिया। सुरभिन =गाय। जो प्रिय गोप अधीस = जो गोएं ग्वाल-बालों के स्वामी कृष्ण को प्रिय थीं। जुरि आए = इकट्ठे हो गए

 

 

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17 राग गोरी

 

कहां लौं कहिए ब्रज की बात।

सुनहु स्याम, तुम बिनु उन लोगनि जैसें दिवस बिहात॥

गोपी गाइ ग्वाल गोसुत वै मलिन बदन कृसगात।

जो कहुं आवत देखि दूरि तें पूंछत सब कुसलात।

चलन न देत प्रेम आतुर उर, कर चरननि लपटात॥

पिक चातक बन बसन न पावहिं, बायस बलिहिं न खात।

सूर, स्याम संदेसनि के डर पथिक न उहिं मग जात॥

 

भावार्थ :- `परमदीन…पात,’ सारे ब्रजबासी ऐसे श्रीहीन और दीन दिखाई देते है, जैसे शिशिर के पाले से कमल कुम्हला जाता है और पत्ते उसके झुलस जाते हैं। `पिक ….पावहिं,’ कोमल और पपीहे विरहाग्नि को उत्तेजित करते हैं अतः बेचारे इतने अधिक कोसे जाते हैं कि उन्होंने वहां बसेरा लेना भी छोड़ दिया है। `बायस….खात,’ कहते हैं कि कौआ घर पर बैठा बोल रहा हो और उसे कुछ खाने को रख दिया जाय, तो उस दिन अपना कोई प्रिय परिजन या मित्र परदेश से आ जाता है। यह शकुन माना जाता है। पर अब कोए भी वहां जाना पसंद नहीं करते। वे बलि की तरफ देखते भी नहीं। यह शकुन भी असत्य हो गया।

 

शब्दार्थ :- विहात =बीतते हैं। मलिन बदन = उदास। सिसिर हिमी हत = शिशिर ऋतु के पाले से मारे हुए। बिनु पात = बिना पत्ते के। कुसलात = कुशल-क्षेम। बायस =कौआ। बलि भोजन का भाग

 

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18 राग मारू

 

ऊधो, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।

बृंदावन गोकुल तन आवत सघन तृनन की छाहीं॥

प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत।

माखन रोटी दह्यो सजायौ अति हित साथ खवावत॥

गोपी ग्वाल बाल संग खेलत सब दिन हंसत सिरात।

सूरदास, धनि धनि ब्रजबासी जिनसों हंसत ब्रजनाथ॥

शब्दार्थ :- गोकुल तन = गोकुल की तरफ। तृनन की = वृक्ष-लता आदि की। हित =स्नेह। सिरात = बीतता था।

भावार्थ :- निर्मोही मोहन को अपने ब्रज की सुध आ गई। व्याकुल हो उठे, बाल्यकाल का एक-एक दृष्य आंखों में नाचने लगा। वह प्यारा गोकुल, वह सघन लताओं की शीतल छाया, वह मैया का स्नेह, वह बाबा का प्यार, मीठी-मीठी माखन रोटी और वह सुंदर सुगंधित दही, वह माखन-चोरी और ग्वाल बालों के साथ वह ऊधम मचाना ! कहां गये वे दिन? कहां गई वे घड़ियां

सूरदास:काव्य-रस एव समीक्षा

Posted by: संपादक- मिथिलेश वामनकर on: October 6, 2008

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सूरदास जी वात्सल्यरस के सम्राट माने गए हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसो का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। बालकृष्ण की लीलाओं को उन्होंने अन्तःचक्षुओं से इतने सुन्दर, मोहक, यथार्थ एवं व्यापक रुप में देखा था, जितना कोई आँख वाला भी नहीं देख सकता। वात्सल्य का वर्णन करते हुए वे इतने अधिक भाव-विभोर हो उठते हैं कि संसार का कोई आकर्षण फिर उनके लिए शेष नहीं रह जाता।

सूर ने कृष्ण की बाललीला का जो चित्रण किया है, वह अद्वितीय व अनुपम है। डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है - “”संसार के साहित्य की बात कहना तो कठिन है, क्योंकि वह बहुत बड़ा है और उसका एक अंश मात्र हमारा जाना है, परन्तु हमारे जाने हुए साहित्य में इनी तत्परता, मनोहारिता और सरसता के साथ लिखी हुई बाललीला अलभ्य है। बालकृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि कमाल की होशियारी और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय देता है। न उसे शब्दों की कमी होती है, न अलंकार की, न भावो की, न भाषा की।

……अपने-आपको पिटाकर, अपना सर्व निछावर करके जो तन्मयता प्राप्त होती है वही श्रीकृष्ण की इस बाल-लीला को संसार का अद्वितीय काव्य बनाए हुए है।”

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इनकी बाललीला-वर्णन की प्रशंसा में लिखा है - “”गोस्वामी तुलसी जी ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखा-देखी बहुत विस्तार दिया सही, पर उसमें बाल-सुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रुप-वर्णन की ही प्रचुरता रही। बाल-चेष्टा का निम्न उदाहरण देखिए -

 

मैया कवहिं बढ़ेगी चोटी ?

कितिक बार मोहि दूध पियत भई,

यह अजहूँ है छोटी ।

तू जो कहति “बल’ की बेनी

ज्यों ह्मववै है लाँबी मोटी ।।

खेलत में को काको गोसैयाँ

जाति-पाँति हमतें कछु नाहिं,

न बसत तुम्हारी छैयाँ ।

अति अधिकार जनावत यातें,

अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ ।

 

सोभित कर नवनीत लिए ।

घुटरुन चलत रेनु तन मंडित,

मुख दधि लेप किए ।।

 

सूर के शान्त रस वर्णनों में एक सच्चे हृदय की तस्वीर अति मार्मिक शब्दों में मिलती है।

कहा करौ बैकुठहि जाय ?

जहँ नहिं नन्द, जहाँ न जसोदा,

नहिं जहँ गोपी ग्वाल न गाय ।

जहँ नहिं जल जमुना को निर्मल

और नहीं कदमन की छाँय ।

परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी,

ब्रजरज तजि मेरी जाय बलाय ।

कुछ पदों के भाव भी बिल्कुल मिलते हैं, जैसे -

अनुखन माधव माधव सुमिरइत सुंदर भेलि मधाई ।

ओ निज भाव सुभावहि बिसरल अपने गुन लुबधाई ।।

भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरि छल छल लोचन पानि ।

अनुखन राधा राधा रटइत आधा आधा बानि ।।

राधा सयँ जब पनितहि माधव, माधव सयँ जब राधा ।

दारुन प्रेम तबहि नहिं टूटत बाढ़त बिरह क बाधा ।।

दुहुँ दिसि दारु दहन जइसे दगधइ,आकुल कोट-परान ।

ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कबि विद्यापति भान ।।

 

इस पद्य का भावार्थ यह है कि प्रतिक्षण कृष्ण का स्मरण करते करते राधा कृष्णरुप हो जाती हैं और अपने को कृष्ण समझकर राधा क वियोग में “राधा राधा’ रटने लगती हैं। फिर जब होश में आती हैं तब कृष्ण के विरह से संतप्त होकर फिर ‘कृष्ण कृष्ण’ करने लगती हैं।

सुनौ स्याम ! यह बात और काउ क्यों समझाय कहै ।

दुहुँ दिसि की रति बिरह बिरहिनी कैसे कै जो सहै ।।

जब राधे, तब ही मुख “माधौ माधौ’ रटति रहै ।

जब माधो ह्मवै जाति, सकल तनु राधा - विरह रहै ।।

उभय अग्र दव दारुकीट ज्यों सीतलताहि चहै ।

सूरदास अति बिकल बिरहिनी कैसेहु सुख न लहै ।।

सूरसागर में जगह जगह दृष्टिकूटवाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है। “सारंग’ शब्द को लेकर सूर ने कई जगह कूट पद कहे हैं। विद्यापति की पदावली में इसी प्रकार का एक कूट देखिए -

सारँग नयन, बयन पुनि सारँग,

सारँग तसु समधाने ।

सारँग उपर उगल दस सारँग

केलि करथि मधु पाने ।।

पच्छिमी हिन्दी बोलने वाले सारे प्रदेशों में गीतों की भाषा ब्रज ही थी। दिल्ली के आसपास भी गीत ब्रजभाषा में ही गाए जाते थे, यह हम खुसरो (संवत् १३४०) के गीतों में दिखा आए हैं। कबीर (संवत् १५६०) के प्रसंग में कहा जा चुका है कि उनकी “साखी’ की भाषा तो”"सधुक्कड़ी’ है, पर पदों की भाषा काव्य में प्रचलित व्रजभाषा है। यह एक पद तो कबीर और सूर दोनों की रचनाओं के भीतर ज्यों का त्यों मिलता है -

है हरिभजन का परवाँन ।

नीच पावै ऊँच पदवी,

बाजते नीसान ।

भजन को परताप ऐसो

तिरे जल पापान ।

अधम भील, अजाति गनिका

चढ़े जात बिवाँन ।।

नवलख तारा चलै मंडल,

चले ससहर भान ।

दास धू कौं अटल

पदवी राम को दीवान ।।

निगम जामी साखि बोलैं

कथैं संत सुजान ।

जन कबीर तेरी सरनि आयौ,

राखि लेहु भगवान ।।

(कबीर ग्रंथावली)

है हरि-भजन को परमान ।

नीच पावै ऊँच पदवी,

बाजते नीसान ।

भजन को परताप ऐसो

जल तरै पाषान ।

अजामिल अरु भील गनिका

चढ़े जात विमान ।।

चलत तारे सकल, मंडल,

चलत ससि अरु भान ।

भक्त ध्रुव की अटल पदवी

राम को दीवान ।।

निगम जाको सुजस गावत,

सुनत संत सुजान ।

सूर हरि की सरन आयौ,

राखि ले भगवान ।।

(सूरसागर)

 

कबीर की सबसे प्राचीन प्रति में भी यह पद मिलता है, इससे नहीं कहा जा सकता है कि सूर की रचनाओं के भीतर यह कैसे पहुँच गया।

राधाकृष्ण की प्रेमलीला के गीत सूर के पहले से चले आते थे, यह तो कहा ही जा चुका है। बैजू बावरा एक प्रसिद्ध गवैया हो गया है जिसकी ख्याति तानसेन के पहले देश में फैली हुई थी। उसका एक पद देखिए -

 

मुरली बजाय रिझाय लई मुख मोहन तें ।

गोपी रीझि रही रसतानन सों सुधबुध सब बिसराई ।

धुनि सुनि मन मोहे, मगन भईं देखत हरि आनन ।

जीव जंतु पसु पंछी सुर नर मुनि मोहे, हरे सब के प्रानन ।

बैजू बनवारी बंसी अधर धरि बृंदाबन चंदबस किए सुनत ही कानन ।।

जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदासजी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदासजी का। वास्तव में ये हिंदी काव्यगगन के सूर्य और चंद्र हैं। जो तन्मयता इन दोनों भक्तशिरोमणि कवियों की वाणी में पाई जाती है वह अन्य कवियों में कहां। हिन्दी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ। इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया।

उत्तम पद कवि गंग के,

कविता को बलबीर ।

केशव अर्थ गँभीर को,

सुर तीन गुन धीर ।।

इसी प्रकार यह दोहा भी बहुत प्रसिद्ध है -

 

किधौं सूर को सर लग्यो,

किधौं सूर की पीर ।

किधौं सूर को पद लग्यो,

बेध्यो सकल सरीर ।।

 

यद्यपि तुलसी के समान सूर का काव्यक्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की भिन्न भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा। श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक ओर किसी कवि की नहीं।

काहे को आरि करत मेरे मोहन !

यों तुम आँगन लोटी ?

जो माँगहु सो देहुँ मनोहर,

य है बात तेरी खोटी ।।

सूरदास को ठाकुर ठाढ़ो

हाथ लकुट लिए छोटी ।।

सोभित कर नवनीत लिए ।

घुटुरुन चलत रेनु - तन - मंडित,

मुख दधि-लेप किए ।।

 

सिखवत चलन जसोदा मैया ।

अरबराय कर पानि गहावति,

डगमगाय धरै पैयाँ ।।

 

पाहुनि करि दै तरक मह्यौ ।

आरि करै मनमोहन मेरो,

अंचल आनि गह्यो ।।

दधि भ्वै ढरकि रह्यो ।।

 

बालकों के स्वाभाविक भावों की व्यंजना के न जाने कितने सुंदर पद भरे पड़े हैं। “स्पर्धा’ का कैसा सुंदर भाव इस प्रसिद्ध पद में आया है -

मैया कबहिं बढ़ैगी चीटी ?

कितिक बार मोहिं दूध पियत भई,

वह अजहूँ है छोटी ।

तू जो कहति “बल’ की बेनी ज्यों

ह्मवै है लाँबी मोटी ।।

इसी प्रकार बालकों के क्षोभ के यह वचन देखिए -

 

खेलत में को काको गोसैयाँ ?

जाति पाँति हम तें कछु नाहिं,

न बसत तुम्हारी छैयाँ ।

अति अधिकार जनावत यातें,

अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ ।।

 

वात्सल्य के समान ही श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं। गोकुल में जब तक श्रीकृष्ण रहे तब तक का उनका सारा जीवन ही संयोग पक्ष है।

करि ल्यौ न्यारी,

हरि आपनि गैयाँ ।

नहिंन बसात लाल कछु तुमसों

सबै ग्वाल इक ठैयाँ ।

धेनु दुहत अति ही रति बाढ़ी ।

एक धार दोहनि पहुँचावत,

एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी ।।

मोहन कर तें धार चलति पय

मोहनि मुख अति ह छवि बाढ़ी ।।

 

देखि री ! हरि के चंचल नैन।

खंजन मीन मृगज चपलाई,

नहिं पटतर एक सैन ।।

राजिवदल इंदीवर, शतदल,

कमल, कुशेशय जाति ।

निसि मुद्रित प्रातहि वै बिगसत, ये बिगसे दिन राति ।।

अरुन असित सित झलक पलक प्रति,

को बरनै उपमाय ।

मनो सरस्वति गंग जमुन

मिलि आगम कीन्हों आय ।।

नेत्रों के प्रति उपालंभ भी कहीं कहीं बड़े मनोहर हैं -

सींचत नैन-नीर के, सजनी ! मूल पतार गई ।

बिगसति लता सभाय आपने छाया सघन भई ।।

अब कैसे निरुवारौं, सजनी ! सब तन पसरि छई ।

सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता। उद्धव तो अपने निर्गुण ब्रह्मज्ञान और योग कथा द्वारा गोपियों को प्रेम से विरत करना चाहते हैं और गोपियाँ उन्हें कभी पेट भर बनाती हैं, कभी उनसे अपनी विवशता और दीनता का निवेदन करती हैं -

उधो ! तुम अपनी जतन करौ

हित की कहत कुहित की लागै,

किन बेकाज ररौ ?

जाय करौ उपचार आपनो,

हम जो कहति हैं जी की ।

कछू कहत कछुवै कहि डारत,

धुन देखियत नहिं नीकी ।

इस भ्रमरगीत का महत्त्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरुपण बड़े ही मार्मिक ढंग से, हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्कपद्धति पर नहीं - किया है। सगुण निर्गुण का यह प्रसंग सूर अपनी ओर से लाए हैं। जबउद्धव बहुत सा वाग्विस्तार करके निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं, तब गोपियाँ बीच में रेककर इस प्रकार पूछती हैं -

निर्गुन कौन देस को बासी ?

मधुकर हँसि समुझाय,

सौह दै बूझति साँच, न हाँसी।

और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुण सत्ता का निषेध करक तू क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक बक करता है।

सुनिहै कथा कौन निर्गुन की,

रचि पचि बात बनावत ।

सगुन - सुमेरु प्रगट देखियत,

तुम तृन की ओट दुरावत ।।

उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई सम्बन्ध हो सकता है, यह तो बताओ -

रेख न रुप, बरन जाके नहिं ताको हमैं बतावत ।

अपनी कहौ, दरस ऐसे को तु कबहूँ हौ पावत ?

मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत ?

नैन विसाल, भौंह बंकट करि देख्यो कबहुँ निहारत ?

तन त्रिभंग करि, नटवर वपु धरि, पीतांबर तेहि सोहत ?

सूर श्याम ज्यों देत हमैं सुख त्यौं तुमको सोउ मोहत ?

अन्त में वे यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुण में ही अधिक रस जान पड़ता है -

ऊनो कर्म कियो मातुल बधि,

मदिरा मत्त प्रमाद ।

सूर श्याम एते अवगुन में

निर्गुन नें अति स्वाद ।।

भ्रमरगीतसार परिचय

Posted by: संपादक- मिथिलेश वामनकर on: October 6, 2008

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हिन्दी काव्यधारा में सगुण भक्ति परंपरा में कृष्णभक्ति शाखा में सूरदासजी सूर्य के समान दैदिप्तमान हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरदासजी की भक्ति और श्रीकृष्ण-कीर्तन की तन्मयता के बारे में उचित ही लिखा है - ‘आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएं श्रीकृष्ण की प्रेमलीला का कीर्तन करने उठीं जिनमें सबसे उंची, सुरीली और मधुर झनकार अंधे कवि सूरदासजी की वीणा की थी।’

 

भागवत की प्रेरणा से सूरदासजी ने सूरसागर ग्रंथ की रचना की है। इसमें भी भ्रमरगीत-सार प्रसंग द्वारा सूरदासजी ने अपनी अनन्य श्रीकृष्ण प्रीति को गोपियों की उपालंभ स्थिति द्वारा अभिव्यक्त किया है -

मुख्य रूप से सूरदासजी के पदों को हम तीन प्रकार से बांट सकते हैं -

1. विनय के पद (भगवद् विषयक रति)

2. बाल लीला के पद (वात्सल्य रस वाले)

3. गोपियों के प्रेम-संबंधी पद (दाम्पत्य रति वाले)

1. विनय के पद :

श्रीकृष्ण भक्ति में डूबे सूर ने सूरसागर मे तुलसीदास की भांति विनय के पद भी लिखे हैं। गीताप्रेस-गोरखपुर द्वारा संपादित संग्रह ‘सूर-विनय-पत्रिका’ में 309 ऐसे विनय के पद संग्रहीत हैं जिनमें सूरदासजी के वैराग्य, संसार की अनित्यता, विनय प्रबोध एवं चेतावनी के सुंदर पदों का संग्रह है। विनय के पदों का सिरमौर पद यह है जिसमें सूरदासजी की कृष्ण-चरित्र में कितनी श्रद्धा-भक्ति है, उसका परिचय मिलता है -

 

चरन-कमल बंदो हरि-राई।

जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे, अंधे को सब कुछ दरसाई।

बहिरो सुनै, मूक पुनि बोले, रंक चलै सिर छत्र धराई।

सूरदासजी स्वामी करूणामय बार-बार बंदौं तिहि पाई।

(सूर, विनय-पत्रिका पद-1)

 

सूरदासजी श्रीकृष्ण की भक्त वत्सलता के बारे में बताते हैं - आप जगत के पिता होने पर भी अपने भक्तों की धृष्टता सह लेते हैं -

 

वासुदेव की बड़ी बड़ाई।

जगत-पिता, जगदीश, जगत-गुरू

निज भक्तन की सहत ढिठाई।

बिनु दीन्हें ही देत सूर-प्रभु

ऐसे हैं जदुनाथ गुसाई॥

(सूर, विनय-पत्रिका, पद 4)

 

सूरदासजी अपने आराध्य की छवि को बिना पलक गिरते देखते रहना चाहते हैं। मन को नंदनंदन का ध्यान करने को कहते हैं कि हे मन! विषय-रस का पान नहीं करना है, जैसे -

 

करि मन, नंदनंदन-ध्यान।

सेव चरन सरोज सीतल, तजि विषय-रस पान॥

सूर श्री गोपाल की छवि, दृष्टि भरि-भरि लेहु।

प्रानपति की निरखि शोभा, पलक परन न देहुं॥

(सूर, विनय-पत्रिका, पद 307)

 

बाल-लीला के पद :

कृष्ण जन्म की आनंद बधाई से ही बाल-लीला का प्रारंभ होता है। भागवत कथा के अनुसार बकी (पूतना) उद्धार से यमलार्जुन उद्धार तक में कृष्ण का गोकुल जीवन और वत्सासुर तथा बकासुर उद्धार से प्रलंबासुर उद्धार एवं गोपों का दावानल से रक्षण तक की कथा वृंदावन बिहारी की बाल-लीला में ले सकते हैं।

सूरदासजी ने श्रीकृष्ण की बाल-लीला से संबंधित अनेक पद लिखे हैं। बालकों की अंत:प्रकृति में भी प्रवेश करके बाल्य-भावों की सुंदर-सुंदर स्वाभाविक व्यंजना की है। बाल-चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का जितना भंडार सूरसागर में भरा है उतना और कहीं नहीं। जैसे कृष्ण बाल सहज भाव से जशोदा मैया से पूछते हैं -

मैया कबहुं बढ़ेगी चोटी?

किती बार मोहि दूध पियत भई यह अजहूं है छोटी।

(भ्रमरगीत-सार, पृ.16)

 

श्रीकृष्ण की माखन मंडित मूर्ति और रेणु मंडित तन तथा घुटरून चलने की स्थिति का वर्णन सूर सुंदर ढंग से करते हैं -

 

शोभित कर नवनीत लिए।

घुटरुअन चलत, रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किये।

(भ्रमरगीत-सार, पृ.16)

 

3. गोपियों के प्रेम संबंधी पद :

श्रीमदभागवत में दशम स्कंध के अंतर्गत प्रख्यात पांच गीतों की रचना वेद व्यास की अमर उपलब्धियां हैं - 1. वेणुगीत 2.गोपीगीत 3. युगलगीत 4. भ्रमरगीत और 5. महिषीगीत। 11 वें स्कंध में छठा गीत भिक्षुगीत भी मिलता है।

भक्ति की दृष्टि से गोपीगीत और उद्धवगोपी के संवाद स्वरूप भ्रमरगीत का अनन्य मूल्य है। सूरदासजी ने भी भागवत की प्रेरणा से भ्रमरगीत प्रसंग को सूरसागर में लिखकर अपनी कृष्ण भक्ति को चरितार्थ किया है। गोपियों के प्रेम संबंधी पद भ्रमरगीत प्रसंग में अधिक हैं। वृंदावन के सुखमय जीवन में गोपियों के प्रेम का उदय होता है। श्रीकृष्ण के सौंदर्य और मनोहर चेष्टाओं को देखकर गोपियां मुग्ध होती हैं और कृष्ण की कौमार्यावस्था की स्वाभाविक चपलतावश उनकी छेड़छाड़ प्रारंभ करती हैं। सूर ने ऐसे प्रेम-व्यापार का स्वाभाविक प्रारंभ भी दिखाया है। सूर के कृष्ण और गोपियां मुक्त और स्वछंद तथा उनका जीवन सहज और स्वाभाविक है। कृष्ण बाल्य काल से ही गोपियों के साथ है। सुंदरता, चपलता में वे अद्वितीय थे। अत: गोपियों के प्रेम का क्रमश: विकास दो प्राकृतिक शक्तियों के प्रभाव से होने से बहुत स्वाभाविक प्रतीत होता है। श्रीकृष्ण-राधा का प्रथम मिलन सूरदासजी बाल-सहज निर्दोषता से प्रस्तुत करते हैं -

 

बूझत श्याम, कौन तू गौरी।

कहां रहति, काकी तू बेटी? देखी नहिं कहुं ब्रज खोरी।

काहे को हम ब्रज तनु आवति, खेलति रहति आपनी पौरी।

सुनत रहति नंद करि झोटा, करत रहत माखन दधि चोरी।

तुमरो कहा चारी लेंहे हम, खेलन चलो संग मिलि जोरी।

सूरदासजी प्रभु रसिक-सिरोमनि बातन भुरई राधिका भोरी

(भ्रमरगीत-सार, पृ.18)

 

श्रीकृष्ण के मथुरा जाने से समग्र ब्रज-प्रांत का जीवन दु:खमय हो गया, सबसे अधिक दयनीय दशा गोपियों की होती है। सूर ने भ्रमरगीत प्रसंग द्वारा गोपियों की विप्रलंभ-श्रृंगार की ऐसी दशा का विस्तार से वर्णन किया है। उद्धव-उपदेश से गोपियों की हालत और दु:खमय बनती है। वे उपालंभ द्वारा कृष्ण-उद्धव को खरी-खोटी सुनाकर अपनी कृष्ण-भक्ति सिद्ध करती हैं -

 

हम तो नंदघोस की बासी।

नाम गोपाल, जाति कुल गोपहि,

गोप-गोपाल दया की।

गिरवरधारी, गोधनचारी, वृंदावन -अभिलाषी।

राजानंद जशोदा रानी, जलधि नदी जमुना-सी।

प्रान हमारे परम मनोहर कमलनयन सुखदासी।

सूरदासजी प्रभु कहों कहां लौ अष्ट महासिधि रासी।

 

यहां गोकुल का जीवन और श्रीकृष्ण की भक्ति में ही गोपियां अपने जीवन की धन्यता बताती हैं, नहीं कि अष्ट महासिद्धि की। उद्धव की निरर्थक ज्ञान वार्ता की गोपियां हंसी उड़ाकर मूल सेठ (श्रीकृष्ण) के मिलन की मुंहमांगी कीमत देना चाहती हैं। जैसे -

 

आयो घोष बड़ो व्यापारी

लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आन उतारी।

 

गोपियां स्त्री-सहजर् ईष्या से ‘कुब्जानाथ’ कहकर कृष्ण को उपालंभ देती हैं -

काहे को गोपीनाथ कहावत?

जो पै मधुकर कहत हमारे गोकुल काहे न आवत?

कहन सुनन को हम हैं उधो सूर अनत बिरमावत।

(भ्रमरगीत-सार, पद 45)

 

यहां ‘मधुकर’ शब्द में तीनों शक्तियां मौजूद हैं। जिसका अभिधा में भौरा, लक्षणा में उद्धव और व्यंजना में कृष्ण अर्थ सूर ने दिया है। गोपियां हरिकथा की प्यासी हैं। उद्धव से विनती करती हैं -

 

हम को हरि की कथा सुनाव।

अपनी ज्ञानकथा हो उधो! मथुरा ही ले जाव।

 

उद्धव द्वारा श्याम-चिटठी से जो गोपियाेंं की दशा होती है उसका सूर ने अद्भुत कौशल से वर्णन किया है -

निरखत अंक श्याम सुंदर के,

बार-बार लावति छाती।

प्राननाथ तुम कब लौं मिलोगे सूरदासजी प्रभु बाल संघाती।

‘अंक श्याम’ में श्लेष प्रयोग हुआ है। एक अर्थ अक्षर काला और दूसरा गोप-कृष्ण अर्थ व्यंजित हुआ है। इस प्रकार सूर के पदों में कृष्ण भक्ति का अनन्य और आकर्षण रूप श्रृंगार और वात्सल्य रस द्वारा प्रस्तुत हुआ है। वे श्रीकृष्ण की कृपा को ही जीवनाश्रम मानते थे।

 

भ्रमर गीत में सूरदासजी ने उन पदों को समाहित किया है जिनमें मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्धव को ब्रज संदेस लेकर भेजा जाता है और उद्धव जो हैं योग और ब्रह्म के ज्ञाता हैं उनका प्रेम से दूर दूर का कोई सरोकार नहीं है। जब गोपियाँ व्याकुल होकर उद्धव से कृष्ण के बारे में बात करती हैं और उनके बारे में जानने को उत्सुक होती हैं तो वे निराकार ब्रह्म और योग की बातें करने लगते हैं तो खीजी हुई गोपियाँ उन्हें काले भँवरे की उपमा देती हैं। बस इन्हीं करीब 100 से अधिक पदों का संकलन भ्रमरगीत या उद्धव-संदेश कहलाया जाता है।

 

कृष्ण जब गुरु संदीपन के यहाँ ज्ञानार्जन के लि�