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पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका(अ से ह तक )

लेखकराधा गुप्ता सुमन अग्र�ाल वि�विपन कुमार

समप�णएक सफल व्य�सायी होते हुए भी आजी�न साविहत्य पे्रमी, वि�द्या व्यसनी, गी�ा�ण�ाणी की से�ा हेतु समुत्सुक, हमारे पे्ररणा स्रोत ए�ं पथ - प्रदर्श�क, परम पूज्य विपता स्�ग1य श्री बल�ीर सिसंह ए�ं अगाध �ात्सल्यमयी मां स्�ग1या श्रीमती पे्रमलता की पुण्य स्मृवित में प्रकाशिर्शत

श्री बल�ीर सिसंह : जन्म - माग�र्शीष� कृष्ण वि=तीया, वि�.सं. १९७८( ७-१२-१९२१ ई. ); विनकुञ्ज �ास : श्रा�ण रु्शक्ल सप्तमी, वि�.सं.२०५५( ३०-७-१९९८ई. )श्रीमती पे्रमलता : जन्म : श्रा�ण कृष्ण त्रयोदर्शी, वि�.सं. १९८५( १३-८-१९२८ई.) ; विनकुञ्ज �ास : माघ कृष्ण वि=तीया, वि�.सं. २०३८( २०-२-१९८१ई. )

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प्राक्कथनवि�कशिसत समाज अपने कुछ आदर्शL पर आधारिरत रहता है। ये आदर्श� कौन से हैं, यह उस समाज

में उपलब्ध दन्तकथाओं से परिरलणिUत होता है। इन दन्तकथाओं का संकलन जिजन ग्रन्थों में होता है, उन्हें पुराण या अंग्रेजी में माइथालाजी कहा जाता है। लेविकन ऐसा नहीं है विक यह ग्रन्थ के�लमात्र समाज में प्रचशिलत व्य�हारों का, विनयमों का दप�ण मात्र ही हों। इन कथाओं के पीछे पद] में कुछ योग, वि�ज्ञान, दर्श�न आदिद के गम्भीर तथ्य भी शिछपे रहते हैं, ऐसी परम्परागत रूप से मान्यता रही है। भारत में जो मुख्य रूप से १८ पुराणों का संग्रह प्रशिसद्ध है, उसके बारे में तो यह भी मान्यता है विक �ह �ेदों की परोU रूप से व्याख्याए ंप्रस्तुत करते हैं, �ेदों के जिजन र्शब्दों का अथ� ज्ञात नहीं है, उन र्शब्दों के अथ� कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। �ैदिदक र्शब्दों के अथLको समझने के शिलए आज एकमात्र यास्क का विनरुक्त ही उपलब्ध है और उसमें �ेद के कुछ एक र्शब्द ही शिलए गए हैं। उन र्शब्दों की व्याख्या भी ऐसी है जो सामान्य रूप से बोधगम्य नहीं है। दूसरी ओर, पुराणों की कथाए ं स��सुलभ हैं और उन कथाओं के रहस्यों को समझ कर र्शब्दों के मूल अथ� तक पहुंचा जा सकता है। लेविकन यह मानना होगा विक इस दिदर्शा में गंभीर प्रयासों की आ�श्यकता है।

पुराणों ने भारतीय समाज के शिलए एक व्य�हार र्शास्त्र भी प्रस्तुत विकया है। पुत्र का माता - विपता के साथ, पत्नी का पवित के साथ, गुरु का शिर्शष्य के साथ, राजा का प्रजा के साथ, भृत्य का स्�ामी के साथ व्य�हार कैसा हो, यह सब पुराणों में उपलब्ध है। समाज में ब्राह्मण, Uवित्रय आदिद ४ �णL की कल्पना की गई है जिजनके अलग - अलग कत�व्य विनधा�रिरत विकए गए हैं। यह �ण� व्य�स्था उशिचत है या नहीं, इसमें वि��ाद नहीं हो सकता, लेविकन यह जन्म के आधार पर हो या कम� के आधार पर, इस वि�षय में लगता है

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पुराणों में भी अन्तर्वि�ं�ाद है। कहीं जन्म के आधार पर मानी गई है, कहीं कम� को प्रधानता दी गई है, कहीं जन्म से प्राप्त �ण� को कमL =ारा परिर�र्वितंत करते हुए दिदखाया गया है।

समाज में लोगों की श्रद्धा को विकस ओर उन्मुख विकया जाए, इसका भी प्रयास पुराणों में विकया गया है। पुराणों में वि�णिभन्न दे�ताओं के पूजन - अच�न की वि�धिध का वि�स्तार से �ण�न है। मूर्वितं विनमा�ण में दे�ता की मूर्वितं कैसी बनानी चाविहए, उसकी प्रवितष्ठा के शिलए मजिन्दर का स्�रूप कैसा होना चाविहए, यह सब पुराणों में �ास्तुकला के अन्तग�त धिमलता है। पुराणों में प्रस्तुत दे�ताओं की साकार मूर्वितंयों का स्�रूप बहुत लम्बे काल से वि��ाद का वि�षय रहा है, वि�देर्शी आक्रमणकारिरयों की घृणा का पात्र बना है, लेविकन अनुमान यह है विक �ैदिदक साविहत्य में दे�ताओं के जिजन गुणों की व्याख्या र्शब्दों में की गई है, पुराणों में उसका सरलीकरण करते हुए उसे एक साकार रूप दिदया गया है।

पुराणों में दन्तकथाओं में अन्तर्विनंविहत राजाओं की �ंर्शा�शिलयां भी प्राप्त होती हैं और काल विनधा�रण के संदभ� में आधुविनक पुरातत्त्�वि�दों के बीच यह �ंर्शा�शिलयां वि��ाद का वि�षय रही हैं। कहा जाता है विक भूगभ� से प्राप्त शिर्शलालेखों से राजाओं का जो कालविनधा�रण होता है, �ह पौराणिणक आधार पर विकए गए कालविनधा�रण से मेल नहीं खाता। अतः पुराणों की कथाओं के पात्र विकसी �ास्तवि�क घटना के आधार पर शिलए गए हैं या काल्पविनक प्रस्तुवित हैं, इसका विनण�य करना कदि|न है।

पुराणों में भूगोल का वि�स्तृत �ण�न धिमलता है। लेविकन यह भूगोल कहीं तो पृशिथ�ी के आधुविनक मानशिचत्र से मेल खाता है, कहीं नहीं। ऐसा लगता है विक भूगोल के इस वि�स्तृत �ण�न के पीछे पुराण प्राचीन भारतीय वि�चारधारा को प्रस्तुत कर रहे हैं।

पुराणों में मुगलकालीन तथा अंग्रेजों के र्शासनकाल तक के राजाओं के नाम भी उपलब्ध होते हैं। भवि�ष्य पुराण में तो यह �ण�न अवितर्शयोशिक्त तक पहुंच गया है और कहा जाता है विक इस पुराण का मूल रूप उपलब्ध न होने के कारण कुछ वि�=ानों ने नई कल्पना करके इसकी Uवितपूर्वितं की है। तथ्य चाहे कुछ भी रहा हो, लेविकन इससे इन्कार नहीं विकया जा सकता विक यह पुराण भी �ेद व्याख्या प्रस्तुत करने में सबसे अग्रणी है और इसका जो अंर्श कल्पिल्पत प्रतीत होता है, �ह भी बहुत सारगर्भिभंत है।

भारतीय समाज का आधार होते हुए भी पुराणों के मन्थन के उतने गम्भीर प्रयास नहीं विकए गए हैं जिजतने अपेणिUत थे। श्रीमती राधा गुप्ता, श्रीमती सुमन अग्र�ाल � श्री वि�विपन कुमार =ारा प्रस्तुत पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका के इस भाग में अ से लेकर ह तक के पुराणों के वि�षयों और नामों का संकलन विकया गया है। आर्शा है यह ग्रन्थ अध्येताओं को, चाहे �ह विकसी भी Uेत्र के हों, नई सामग्री प्रस्तुत करेगा। इससे पहले इन्हीं लेखकों =ारा २ ग्रन्थ ° पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका ° ( �ैदिदक दिटप्पणिणयों सविहत ) प्रकाशिर्शत विकए जा चुके हैं, लेविकन दिटप्पणी लेखन का काय� बहुत बृहत् है और यह उशिचत ही है विक अनुक्रमणिणका को विबना दिटप्पणिणयों के ही प्रकाशिर्शत कर दिदया जाए। इस ग्रन्थ में पुराणों के बहुत से वि�षयों को चुना गया है, लेविकन वि�षयों के र्शीष�कों का चुना� बृहत् काय� है और उसे भवि�ष्य में और अधिधक बृहत् रूप में दिदया जा सकता है। लेखक - त्रय ने अपना संकलन के�ल पुराणों तक ही सीधिमत नहीं रखा है। पुराणों के अवितरिरक्त उन्होंने �ाल्मीविक रामायण, योग�ाशिसष्ठ, महाभारत, कथासरिरत्सागर, लक्ष्मीनारायण संविहता जैसे ग्रन्थों से भी सामग्री का चयन विकया है। लक्ष्मीनारायण संविहता ग्रन्थ भाषा की दृधि� से अपेUाकृत अ�ा�चीन काल का प्रतीत होता है लेविकन लेखकों ने अपने संकलन में उसे स्थान देना उशिचत समझा है। भवि�ष्य के इवितहासकारों के शिलए यह एक चेता�नी का वि�षय है। आज से हजार - दो हजार �ष� पश्चात् के

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इवितहासकार कह सकते हैं विक लक्ष्मीनारायण संविहता भी एक पुराण है क्योंविक इस समय के अनुक्रमणिणका बनाने �ाले लेखक - त्रय ने इसे अपनी अनुक्रमणिणका में स्थान दिदया है। लेविकन यह ध्यान रखना होगा विक विकसी ग्रन्थ के पुराण कहलाने के शिलए पांच या दस लUण विनधा�रिरत कर दिदए गए हैं। जिजन ग्रन्थों में यह सारे लUण धिमलेंगे, के�ल उन्हें ही पुराण कहा जा सकता है। अतः लेखक - त्रय अपने संकलन में चाहे जिजस ग्रन्थ को स्थान दें, उन्हें पुराणों की संज्ञा नहीं दी जा सकती।

मैं कामना करता हंू विक लेखक - त्रय इस अनुक्रमणिणका का रे्शष भाग भी र्शीघ्र पूरा करने में समथ� हों। यह काय� बहुत ही श्रमसाध्य तथा र्शोधपरक है। इन ग्रन्थों के आने से भारतीय वि�द्या के वि�=ानों तथा र्शोध छात्रों को लाभ होगा, ऐसा मेरा वि�श्वास है। भग�ान् उन्हें सामथ्य� और सुवि�धा प्रदान करे, इसी अणिभलाषा के साथ मैं उन्हें बधाई भी देता हंू तथा उत्साह�ध�न भी करता हंू। संयोग�र्श, लेखक - त्रय का सम्बन्ध भी मेरे पैतृक जन्मस्थान से ही है। पुष्पेन्द्र कुमार २४-१०-२००४ ई.

भूधिमकाविपछले एक दर्शक में माननीय डा. फतहसिसंह के विनद]र्शन में पुराणों के माध्यम से �ैदिदक तत्त्�ों की व्याख्या का प्रयास विकया जाता रहा है जो वि�णिभन्न ग्रन्थों के माध्यम से प्रसु्फदिटत हुआ है। �त�मान ग्रन्थ इस दिदर्शा में न�ीनतम उपलब्धिब्ध है। प्रस्तुत ग्रन्थ में वि�णिभन्न वि�षयों पर पुराणों में आए संदभL का संकलन विकया गया है और जहां - जहां संभ� हो सका है, उन पर �ैदिदक साविहत्य के संदभ� में दिटप्पणी की गई है। आभासी रूप में तो पुराणों की कथाए ंआधारहीन लगती हैं और कुछ वि�चारकों का मानना है विक पुराणों को समझने की कुञ्जी खोई गई है। लेविकन यह सौभाग्य है विक आज जिजतनी मात्रट में �ैदिदक साविहत्य उपलब्ध है, उसके आधार पर पुराणों के अधिधकांर्श भाग की व्याख्या संभ� प्रतीत होती है। इतना ही नहीं, �ैदिदक साविहत्य को, जिजसे एक प्रकार से बौजिद्धक स्तर से परे कहकर उपेणिUत कर दिदया जाता है, उसे बौजिद्धक स्तर पर समझने में भी पुराण महत्त्�पूण� भूधिमका विनभाते प्रतीत होते हैं। अतः यह कहा जा सकता है विक पुराण तथा रे्शष �ैदिदक साविहत्य एक दूसरे के पूरक हैं। आज स्�तन्त्र भारत में हमें यह सुवि�धा प्राप्त हुई है विक हम इन दोनों का सम्यक् अ�लोकन करके आ�श्यक तथ्यों को सामने लाए।ं इतना ही नहीं, लेखकों की यह कामना है विक इस अ�गाहन से इतनी महत्त्�पूण� सामग्री प्राप्त हो विक �ह आधुविनक काल के वि�ज्ञानों को समझने के शिलए भी उपयोगी हो सके और कम से कम भारत में आधुविनक वि�ज्ञान की र्शाखाओं का अध्ययन पुराणों और �ेदों को आधार बनाकर विकया जा सके।

आचाय� श्री रङ्गनाथ जी सेलूकर, गङ्गाखेड, महाराष्ट्र =ारा भारत के वि�णिभन्न नगरों में आयोजिजत �ैदिदक परम्परा के यज्ञों के माध्यम से लेखकों को �ैदिदक तत्त्�ों के रहस्य समझने में वि�रे्शष सहायता धिमली है और इसके शिलए लेखक उनके आभारी हैं।

- लेखक - त्रय

प्राक्कथन

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श्रीमती राधा गुप्ता तथा श्री वि�विपन कुमार के माध्यम से पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका के सृजन का जो काय� चल रहा है , उसे देखकर मुझे अत्यन्त आत्मित्मक सन्तोष का अनुभ� होता है। वि�गत �षL में हमारे देर्श में �ेदों के पुनरुद्धार का प्रयत्न तो बहुत विकया गया है , लेविकन उसमें सफलता अधिधक नहीं धिमल सकी है। दूसरी ओर , पुराण धार्मिमंक ग्रन्थों की कोदिट में होने पर भी उनको ऐवितहाशिसक राजाओं आदिद का �ण�न समझकर उनकी उपेUा सी कर दी गई है। यह हष� का वि�षय है विक श्रीमती राधा गुप्ता तथा उनके सहयोगी लेखकों ने यह शिसद्ध कर दिदया है विक पुराण और �ेद अन्योन्याणिश्रत हैं और पुराण कोई ऐवितहाशिसक राजाओं का �ण�न न होकर �ेदों के शिछपे रहस्यों को प्रकट करने का एक माध्यम हैं जिजनको समझने के शिलए तक� और श्रद्धा दोनों की आ�श्यकता पडती है। पुराणों का महत्त्� इसशिलए और अधिधक हो जाता है क्योंविक हमारे सारे समाज का आधार पुराणगत �ण�न हैं। पुराणों में विकसी तथ्य का �ण�न जिजस रूप में भी उपलब्ध है , चाहे �ह �त�मान दृधि� से उशिचत है या अनुशिचत , हमारे कट्टरपन्थी समाज में उसका अUरर्शः पालन हो रहा है। लेविकन यह ध्यान देने योग्य है विक पुराणों की भाषा को अUरर्शः उसी रूप में मानना जिजसमें �ह कही गई है , मूढता होगा। पुराणों में सूक्ष्म और कारण र्शरीर की घटनाओं को स्थ o ल र्शरीर के स्तर पर समझने योग्य बनाया गया है। यदिद पुराणों में रू्शद्र की छाया पडने का विनषेध है तो इस कथन को आंख - कान बंद करके मानना तो मूखL का काम होगा। महाभारत आदिद ग्रन्थों में यह स्प� रूप से शिलखा गया है विक ब्राह्मण कौन है , कौन Uवित्रय है , कौन �ैश्य है और कौन रू्शद्र। जिजसने अपने काम , क्रोध आदिद पर वि�जय पा ली हो �ह ब्राह्मण हो सकता है , इस प्रकार पुराणों की दृधि� से सोचा जाए तो हम सभी रू्शद्र अथ�ा रू्शदे्रतर ही हैं , ब्राह्मणत्� का तो कहीं नाम ही नहीं है।प्रायः कहा जाता है विक �ेद पढने का अधिधकार के�ल ब्राह्मण को है और रू्शद्र तो के�ल पुराण ही सुन सकता है। इस कथन में तविनक भी संदेह का स्थान नहीं है। जब तक व्यशिक्त विबल्कुल सात्वित्�क न हो जाए , मोU की अ�स्था के एकदम विनकट न पहुंच जाए, तब तक �ेदों को समझना बहुत कदि|न काय� है। दूसरी ओर , पुराणकारों ने राजाओं की कथाओं के माध्यम से �ेद के जिजन रहस्यों के उद्घाटन का प्रयास विकया है , उन रहस्यों को Uुद्र बुजिद्ध का व्यशिक्त , जिजसे रू्शद्र कहा जाता है , श्रद्धापू��क सुनकर रहस्यों को समझ सकता है। यह तो रही पुराणों की बात। लेविकन �त�मान में प्रस्तुत पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका पढने का अधिधकार विकसको है ? मेरा वि�चार है विक �ैसे तो पुराणों में रुशिच रखने �ाला प्रत्येक व्यशिक्त इसे पढकर पूरे �ैदिदक समुद्र में स्नान का आनन्द ले सकता है , लेविकन जो व्यशिक्त ध्यान साधना की प्रविक्रया से गुजर चुका है , �ह पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका के माध्यम से �ैदिदक समुद्र में गोते लगाकर अपनी साधना को �ेदोन्मुखी, पुराणोन्मुखी बना सकता है जिजसकी वि�गत हजारों �षL से आ�श्यकता रही है।

डाँ. हरिरहर वित्र�ेदी साविहत्य �ाचस्पवित , काव्यतीथ� ,एफ.आर.ए.एस. ( लन्दन ), विनदेर्शक ( से�ा विन�ृत्त ) पुरातत्� ए�ं संग्रहालय वि�भाग , म.प्र.र्शासन।

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प्रस्ता�ना

पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका नामक ग्रन्थ रंृ्शखला की यह वि=तीय कडी है। श्री वि�विपन कुमार और उनकी सुयोग्य अनुजा श्रीमती राधा गुप्ता एम.ए.,पीएच.डी., डी.शिलट्. का यह अत्यन्त सराहनीय सत्मिम्मशिलत प्रयास है। पुराणों में प्रयुक्त �ैदिदक पारिरभाविषक र्शब्दों के सन्दभ� प्रस्तुत करते हुए लेखक =य ने अपने व्यापक अध्ययन के आधार पर इसमें पुराणगत �ैदिदक सन्दभ� खोजने ए�ं स्थान स्थान पर उनकी व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयास भी विकया है।। इससे न के�ल इसको एक सन्दभ� ग्रन्थ कहा जा सकता है , अविपतु इसमें संदभ� संग्रह के साथ साथ जो यत्र तत्र व्याख्या धिमलती है उसके आधार पर इसे �ेद ए�ं पुराण का तुलनात्मक अध्ययन भी कह सकते हैं। इस दृधि� से , इस ग्रन्थ रंृ्शखला को पुराण ए�ं �ेद का आधारभूत सम्बन्ध बतलाने �ाला भी कह सकते हैं। सामान्यतः वि�=ान् पुराण परम्परा को ऐवितहाशिसक दृधि� से पर�त1 काल का मानते हैं , परन्तु �ैदिदक संविहताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में पुराण , पुराणवि�द ्और पुराण�ेद जैसे र्शब्द इस मान्यता पर पुनर्वि�ंचार करने को बाध्य करते हैं।अतः पुराणों में प्रयुक्त �ैदिदक सन्दभL का यह संग्रह ग्रन्थ �ेद और पुराण के र्शोधकता�ओं के शिलए अवितर्शय उपादेय हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है विक �ेद और पुराण एक ही �ेद वि�ज्ञान को दो णिभन्न प्रकार से प्रस्तुत करते हैं। इस ग्रन्थमाला में �ेद और पुराण की तुलनात्मक दृधि� को अपनाकर हमारी सनातन भारतीय संस्कृवित के उन रहस्यों के उद्घाटन का प्रयास विकया गया है जो परम्पराजविनत अनेक पू�ा�ग्रहों के कारण अभी तक दुब�ध बने हुए हैं। आर्शा है विक श्री वि�विपन कुमार की �ैज्ञाविनक दृधि� और श्रीमती राधा गुप्ता का सांस्कृवितक �ैदुष्य इस दिदर्शा में उत्तरोत्तर प्रगवित करता हुआ र्शोधार्थिथंयों और

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सुवि�ज्ञ प्राध्यापकों के शिलए एक अत्यन्त महत्�पूण� सामग्री प्रस्तुत करेगा। इस स्तुत्य काय� के शिलए दोनों ही साधु�ाद के पात्र हैं। -फतहसिसंह

प्राक्कथनयां मेधां दे�गणाः विपतरश्चोपासते। तया मामद्य मेधावि�नं कुरु।।परमात्मा से मेधा बुजिद्ध की प्राथ�ना की गई। मत्�ा कमा�णिण सीव्यवित , जो मनुष्य मनन करके कायL को करने में तत्पर होता है , �ही मान� है। सृधि� की उत्पणित्त के साथ ही साथ परमात्मा ने जी�मात्र के विहत के शिलए अपना ज्ञान दिदया। इस ज्ञान के =ारा मान� ने अपने को सुखी बनाने के साधनों का विनमा�ण विकया। अतः जहाँ परु्श योविन के�ल भोग भोगने में ही तत्पर है , �हाँ मनुष्य भोग और कम� प्रधान है। �ेदों से आचार - वि�चार , ज्ञान - वि�ज्ञान , वि�श्वबन्धुत्� तथा प्राणिणमात्र आदिद के कल्याणकारक शिसद्धान्तों का आवि�ष्कार हुआ है। इन आदर्शL की छाप विकसी समय सारे वि�श्व में थी और भारत जगद्गरुु बन गया था। भारत�ष� को पहचानना है तो संस्कृत साविहत्य को अपनाना आ�श्यक है।

कवितपय वि�रे्शष वि�भूवितयां सामने आती हैं और इस भौवितक�ाद की चकाचौन्ध से प्रभावि�त न होकर मान� संस्कृवित और सभ्यता की रUा करने में तत्पर रहती हैं। आज मेरे सम्मुख लेखक=य का प्रयास �त�मान पुस्तक के रूप में है। लेखकों की जिजज्ञासा को समझा विक उनका प्रयास है विक �ैदिदक

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र्शब्दों की व्याख्या के शिलए पहले पुराणों में विबखरे हुए �ैदिदक र्शब्दों को , जो कथा रूप में प्रकट विकए गए हैं , उनको समझना |ीक है। देखा जाए तो �ेदों में कोई लौविकक कथा और इवितहास नहीं है , उनमें सा��भौधिमक शिसद्धान्त हैं। लेखक=य ने बृहत् काय�भार ग्रहण विकया। वि�शिचत्र बात यह है विक एक ही माता - विपता के इन दोनों भाई - बविहनों पर आब्धिस्तक और संस्कारिरत परिर�ार का प्रभा� पडा। यह प्रभा� इतना पडा विक पुत्री को संस्कृत की वि�दुषी बनते देख इनके विपता श्री बल�ीर सिसंह जी कुर्शल व्यापारी होते हुए भी आध्यात्मित्मकता की ओर अग्रसर हो गए , पुत्र भी �ैराग्य की ओर अग्रसर हो विबना संस्कृत पढे ही स्�ाध्यायरत हो �ेदों की ओर प्र�ृत्त हो गया। दे�बन्द का सौभाग्य है - जिजस भूधिम में इन दोनों ने जन्म शिलया। सौ.राधा गुप्ता प्रारम्भ से ही मेधा�ी छात्र रही। एम.ए. संस्कृत पढते समय ही �ेद, विनरुक्त , दर्श�न आदिद को जैसे ही पढा , दूसरे दिदन बडी सरलता के साथ सुना कर ही अगला पा| पढना विनत्य विनयम था। यह प्रखर बुजिद्ध विनन्तर �ृजिद्ध करती करती कदि|न गृहस्थ भार को सुगृविहणी बन कर अपने परिर�ार को भी योग्य बना संस्कृत का स्�ाध्याय कर पीएच.डी. और डी.शिलट्. की उपाधिधयों से अलंकृत हुई। एक आदर्श� वि�दुषी का अनुकरणीय साहस तप से कम नहीं है। शिच.वि�विपन का स्�भा� भी छात्र अ�स्था से तार्विकंक था। अपनी अ�स्था के अनुसार प्रश्नों को पूछना - जब तक सन्तु� न हो जाता था , तब तक चैन नहीं धिमलता था। एक सम्पन्न घराने का एम.एस.सी. यु�क अन्य यु�कों की भांवित भौवितक�ादी बन सकता था , परन्तु आध्यात्मित्मक प्रभा� ऐसा पडा विक �ैदिदक ज्ञान की ओर प्र�ृणित्त हो गई। साथ ही दिदल्ली में डा. फतहसिसंह जी के साधिन्नध्य से �ैदिदक छात्र ही बन गया और �ैदिदक तत्� मंजूषा ( पुराणों में �ैदिदक संदभ� ) प्रस्तुत कर दी। गुरु भा� रूप में दोनों ने अपनी कृवितयां मुझे भेंट की। लेखक=य ने यह पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका शिलखने में अथक प्रयास विकया। प्रायः २२ पुराणों , संविहता , श्रौत और गृह्य सूत्रों , ब्राह्मण ग्रन्थों, उपविनषदों, ऋग्�ेद, अथ���ेद, विनरुक्त आदिद का स्�ाध्याय कर वि�रे्शष दिटप्पणिणयों =ारा र्शब्दों को सरलता से समझाने का प्रयास सराहनीय है जो अनुसंधान करने �ालों के शिलए पथप्रदर्श�क बनेगा। मैं अपने इन लेखक=य के भवि�ष्य की उज्ज्�ल कामना करता हुआ इनके दीघ�जी�न और यर्शस्�ी बनने की प्राथ�ना करता हंू। र्शधिमवित।ज्येष्ठ रु्शक्ल अ�मी , वि�. सम्�त्~ २०५५ वि�श्वम्भरदे� र्शास्त्री से�ामुक्त प्र�क्ता स्�तन्त्रता सेनानी शिर्शUक नगर दे��ृन्द

पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका के वि=तीय भाग की भूधिमकापुराण वि�षय अनुक्रमणिणका के �त�मान खण्ड में �ण�माला के ई तथा उ से आरम्भ होने �ाले र्शब्दों का संकलन विकया गया है। इस खण्ड में र्शब्दों पर �ैदिदक दिटप्पणिणयों के अवितरिरक्त , परिरशिर्श� के रूप में �ैदिदक साविहत्य के उन �ाक्यांर्शों को दिदया गया है जिजनके आधार पर प्रस्तुत अनुक्रमणिणका में र्शब्दों पर दिटप्पणिणयां की गई हैं। परिरशिर्श� के आरम्भ में कुछ र्शीष�क हैं जिजनमें के�ल उन्हीं �ाक्यांर्शों को स्थान दिदया

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गया है जिजनका उपयोग दिटप्पणी लेखन में नहीं हो सका। पर�त1 र्शीष�कों में सभी �ाक्यांर्शों का समा�ेर्श है , चाहे उनका उपयोग दिटप्पणी लेखन में हुआ हो या न हुआ हो। परिरशिर्श� के कुछ अंर्श ऐसे भी हैं जो कम्प्यूटर टंकण के समय न� हो गए हैं और इस कारण से �ह परिरशिर्श� में स्थान नहीं पा सके। परिरशिर्श� � दिटप्पणी के अध्ययन से हमें एक वि�षय की वि�स्तृत जानकारी एक साथ धिमल सकती है। हो सकता है विक �ैदिदक संविहताओं , ब्राह्मणों , उपविनषदों और श्रौत ग्रन्थों के कम्प्यूटर में शिलविपबद्ध होने के पश्चात् �ैदिदक �ाक्यांर्शों के लेखन की आ�श्यकता न पडे , विकन्तु अभी तो यह परिरशिर्श� अपरिरहाय� है। स्�यं लेखक - =य भी इसका उपयोग करते रहते हैं।

लेखक - =य डाँ. सीताराम गुप्ता के आभारी हैं जिजनके कारण इस ग्रन्थ के परिरशिर्श� का टंकण लेखन के तुरन्त पश्चात् सम्भ� हो पाया। इसके अवितरिरक्त प्रत्यU और अप्रत्यU रूप से जिजन सज्जनों का सहयोग लेखकों को प्राप्त होता रहा है , लेखक - =य उनके आभारी हैं। वि�विपन कुमार � राधा गुप्ता

पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका के विपछले भाग की समालोचनाए ं: फाल्गुन पूर्भिणंमा , २०५२ ५.३.९६वि�श्वम्भरदे� र्शास्त्री से�ा मुक्त प्र�क्ता ,हरपतराय उ. मा. वि�द्यालय, दे�बन्द।

लेखक - =य =ारा संकशिलत पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका का यह प्रथम भाग प्राप्तकर अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। इस भौवितक काल के कलर� में रहते हुए भी तन्तुं तन्�न् रजसो भानुमत्विन्�विह ( ऋग्�ेद )के अनुसार पू�� पुण्यों के उदय तथा पैवित्रक संस्कारों के प्रभा� से आध्यात्मित्मक दे�धारा में अ�गाहन का फल विकसी भाग्यर्शाली को प्राप्त होता है। यह प्रत्यU प्रमाण है - स्�ाध्यायर्शील श्री बल�ीरसिसंह जी की संस्कृत के प्रवित अगाध श्रद्धा रही - अपने सतत् परिरश्रम से योग�ाशिसष्ठ जैसे गहन ग्रन्थ को हृदयपटल पर अंविकत करना साधारण बुजिद्ध का काम नहीं। प्रातः भ्रमण काल में अपने अनुभ� प्रकट करते और कहते रहते - र्शास्त्री जी , मैं संस्कृत तो पढा ही नहीं। आज अपने ज्ञान को अपनी सन्तानों =ारा वि�कशिसत देख इनको विकतनी आनन्दानुभूवित हो रही है , यह अ�ण�नीय है।

विपता की आध्यात्मित्मक प्रकृवित का उत्तराधिधकार पुत्री सौ. राधा और वि�विपन को प्राप्त हुआ। ऐश्वय� कांणिUणी राधा गृहस्थ का भार सम्भालते हुए भी ऋविषयों की थावित संस्कृत के प्रवित विकतनी विनष्ठा रखती है , यह तो एम. ए. परीUा के समय उसकी प्रखर बुजिद्ध का आभास हो गया था। जो एक बार पढ शिलया , उसकी पुनरा�ृणित्त कभी नहीं की। पुनः पी. एच. डी. और डी. शिलट् की उच्चतम उपाधिध से अलंकृत हुई - अब अपने अर्जिजंत कोष को वि�तरण करने में तत्पर है।

शिच. वि�विपन का प्रारब्धिम्भक जी�न जिजज्ञासु प्रकृवित का रहा। तक� - वि�तक� करके विकसी बात का विनण�य करना एक स्�भा� था। �ह उत्कण्|ा इतनी जागृत हुई विक विबना संस्कृत वि�षय पढे ही - �ेदाथ� जानने की लालसा बढी और अपना जी�न ही मुविन�त् �ैदिदक साविहत्य की ओर अर्विपंत कर दिदया। मैं

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दोनों की पूण� सफलता की कामना करता हंू - इनका यह सात्वित्�क प्रयास विनरन्तर उन्नत होता रहे। परम विपता परमात्मा इनके उज्ज्�ल भवि�ष्य में सहायक बनें। �ेद मन्त्र =ारा मैं भी अपनी सद्भा�ना प्रस्तुत करता हंू। विहरण्यमयेन पाते्रण , सत्यख्याविपविहतं मुखम~। तत् त्�ं पूषन्नपा�ृणु सत्यधमा�य दृ�ये।। र्शधिमवित -वि�श्वम्भरदे� र्शास्त्री दे�बन्द

आपकी यह साविहत्य से�ा अत्यन्त श्लाघनीय ए�ं महत्त्�पूण� है। ऐसे दीघ�कालसाध्य ए�ं बहु - आयामी काय� प्रायः संस्थावि�रे्शष के माध्यम से ही होते रहे हैं। इस प्रथम भाग के पया�लोचन से ज्ञात होता है विक आपने पुराणों के साथ ही �ैदिदक �ाङ्मय के आलोडन में भी पया�प्त प्रयास विकया है।

इस ग्रन्थ के अध्येता को मूल स्थान और उसके वि�कास - वि�स्तार का ज्ञान भी सहज प्राप्त हो जाता है। संस्कृत साविहत्य की वि�र्शाल परिरधिध में व्याप्त तथ्यों का एकत्र प्रस्तुतीकरण परमोपयोगी बना है। हां, एक बात यह भी स्मरणीय है विक हमारे यहां �ेंकटेश्वर पे्रस , मुम्बई से प्रकाशिर्शत पुराण जब प्रकाशिर्शत हुए थे , तब उनके प्रकार्शन के समय र्शोधदृधि� को महत्त्� नहीं दिदया गया था। विकन्तु उस समय के पश्चात् अनेक अनुसन्धान कता�ओं ने कवितपय पा| और धिमलने के सङ्केत दिदये हैं ( जैसे स्कन्द पुराण का एक उमाखण्ड नेपाल के संस्कृत वि�श्ववि�द्यालय से कुछ �ष� पू�� सम्पादिदत होकर छपा है । उसकी भूधिमका में सम्पादक ने बंगाल और अन्य प्रदेर्शों की पाण्डुशिलविपयों से उसे प्राप्त कर छप�ाया है )। इसी प्रकार ब्रह्म�ै�त्त� और ब्रह्माण्डपुराण के भी कुछ भाग तञ्जौर और अन्यत्र अन्य दणिUण के पुस्तकालयों में धिमलते हैं। मरा|ी के एक प्राचीन माशिसक अंकुर्श ( पूना से प्रकाशिर्शत ) में ब्रह्माण्डपुराण के गणेर्श खण्ड का सूचन है जिजसमें बहुत सा वि�षय इधर के ब्रह्माण्डपुराणों में अनुपलब्ध है। - रुद्र दे� वित्रपा|ी ए- १५ , मणिण=ीप , रामटेकरी , मन्दसौर ( म.प्र. ) ४५८००९�ेद से जोडने �ाला पुराण - संदभ� - कोषपुराण महोदधिध के रत्नों की खोज के क्रम में वि�श्वकोषीय प्रयास का एक नमूना हाल ही में सामने आया है , जिजसमें अकारादिद क्रम से पुराणों के �ण्य� वि�षयों ,संज्ञाओं तथा अणिभधानों के अथL, सन्दभL आदिद का वि��रण , साथ ही उनके �ैदिदक उत्सों का वि��रण ही नहीं , उनके विन��चन और व्याख्या की दिदर्शा देने �ाले मंतव्यों का भी समा�ेर्श है। लगता है विक यदिद पूरा वि�श्वकोष बनाने का प्रयास विकया जाए , तो यह दर्शाब्दिब्दयों में जाकर पूरा होने �ाला वि�राट् उपक्रम होगा क्योंविक हमारे सामने आया यह संदभ� कोष तो के�ल अ से इ तक के र्शब्दों का ही �ण�क्रम कोष है। यदिद क्रम चलता रहे तो ह तक पूरा होने में न जाने विकतने खण्ड आ�श्यक होंगे। इस नमूने से भी इस काय� की वि�र्शालता का आभास हो जाता है। यद्यविप कुछ पुराण कोर्श विहन्दी में प्रकाशिर्शत हुए हैं , श्री शिसदे्धश्वर र्शास्त्री शिचत्रा� जैसे वि�=ानों ने मरा|ी आदिद भाषाओं में चरिरत्र कोष ( संज्ञाओं और नामों के कोष ) भी प्रकाशिर्शत विकए थे , जिजनके विहन्दी अनु�ाद भी प्रकाशिर्शत हुए , तथाविप र्शोधात्मक दृधि� से विकस संज्ञा की विकस प्रकार कथाए ं पुराणों में आती हैं , यह

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संदभ� देने के साथ उनका रूप �ेदों , ब्राह्मणों , उपविनषदों आदिद में कैसा था , उसका प्रतीक लेकर पुराणों में जो कथाए ंआई , उनकी �ैदिदक परंपरा के साथ संगवित विकस प्रकार विब|ाई जा सकती है , इसका स�ा®गीण वि��ेचन करने �ाला संपूण� �ण�क्रम कोर्श अब तक देखने में नहीं आया था। इस प्रयास के पूण� होने से यह अपेUा पूरी हो सकती है , ऐसी आर्शा बंधी है।

डां. फतहसिसंह जैसे �ेद वि�=ान् के माग�दर्श�न में र्शोध करने �ाले दो अनुसंधिधत्सुओं के परिरश्रम से प्रसूत यह अनुक्रमणिणका अवित्र , इन्द्र , अंविगरा आदिद चरिरत्रों की ,अ�तार, अब्दिग्न�ोम आदिद अ�धारणाओं की तथा अंक, इजिन्द्रय आदिद संज्ञाओं की प्रवि�धि� देकर उनका संदभ� विकस पुराण में कहां आया है , इसका विनद]र्श करती है। उसके बाद महत्�पूण� प्रवि�धि�यों में वि�स्तृत दिटप्पणी देकर यह स्प� करती है विक �ेद �ाङ्मय में इस का मूल क्या था तथा पुराणों में जो कथाए ंबनीं , उन्हें �ैदिदक अ�धारणा के प्रतीक के रूप में कैसे समझा जाए। उदाहरणाथ� अश्व र्शब्द की प्रवि�धि� पहले तो पुराणों में �र्भिणंत अश्वों के प्रकार , उनकी शिचविकत्सा आदिद का , अश्वों के उपाख्यानों का , पुराणों में आए अश्व , अश्वमेध , अश्वरथ, अश्वदान आदिद का ससंदभ� ( खण्डों और अध्यायों के संदभL सविहत ) वि��रण है , विफर दिटप्पणी के रूप में �ैदिदक अ�धारणाओं का वि�मर्श� है विक विकस प्रकार ज्ञान , विक्रया , भा�ना के वित्रक में भा�ना अश्व है , उसे मेध्य (पा�न ) बनाना अश्वमेध है। इसके साथ ऋग्�ेद में आए अश्वसूक्तों , ऐतरेय ब्राह्मण में अब्दिग्न का अश्व बनकर उक्थों से असुरों को विनकाल फें कने के उल्लेखों के साथ भवि�ष्य पुराण की हयवि�जय कथा की संगवित , सूय� के रथ के सात अश्वों की , आश्वमेधिधक अश्व की बंधन रज्जु के १३ अरत्मित्न लंबे होने को १३ मासों का प्रतीक समझने की , अश्वर्शीष� दधीशिच =ारा मधुवि�द्या के उपदेर्श की ( दधिध, मधु , घृत , परमान्नों की साधना ) , कद्र o - वि�नता को द्या�ापृशिथ�ी का रूप मानने की , पुराणों की सत्य�ान् - सावि�त्री कथा को सावि�ते्रधि� का प्रतीक मानने पर वि�चार करने की , प्राण - अपान को � मन की पराक् और अ�ा�क् गवित को पुराण में �र्भिणंत अश्व युगलों के प्रतीक से समझने की , �ैदिदक श्या�ाश्व और पौराणिणक श्यामकण� अश्व में क्या कोई समानता देखी जा सकती है - ऐसे संकेत देने की डां. फतहसिसंह की जो दिटप्पणी है , �ह �ैदिदक वि�ज्ञान के साथ पौराणिणक अ�धारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने की दृधि� से मूल्य�ान् माग�दर्श�न देती है। - - - - - -इस अनुक्रमणिणका में समस्त महत्�पूण� पुराणों के साथ - साथ रामायण , महाभारत , लक्ष्मीनारायण संविहता और कथासरिरत्सागर के भी सन्दभ� - विनद]र्श हैं। स्प� है विक यह काय� इतने वि�पुल श्रम और समय की अपेUा करता है विक सदिदयों तक ऐसा संकलन होते रहने पर भी इसका ओर - छोर न धिमले क्योंविक हमारा �ैदिदक �ाङ्मय इतना वि�र्शाल है विक हजारों �षL के कालखण्ड में व्याप्त होने के कारण बहुत सा अब तक अनुपलब्ध है। पुराण साविहत्य भी उतना ही ( उससे भी अधिधक ) वि�राट् है। इसके साथ तंत्र �ाङ्मय ( आगम ) और अन्य लौविकक साविहत्य का तुलनात्मक अध्ययन भी करना हो , तो यह काय� मान� साध्य ही नहीं रहता। अतः ऐसा प्रत्येक उपक्रम पूण�ता का दा�ा तो नहीं कर सकता विकन्तु महत्�पूण� पहल करके इवितहास की शिसकता पर अपने पदांक अ�श्य छोड सकता है। इस दृधि� से ऐसे सराहनीय प्रयासों का भरपूर स्�ागत विकया जाना चाविहए।

ऐसे माग�दर्श�क कोषों से �ैदिदक �ाङ्मय के मूल उत्सों का पुराणों और लौविकक साविहत्य की धाराओं में आकर बढने - घटने, बदलने आदिद का तुलनात्मक अध्ययन करने की दिदर्शा में जो पे्ररणा धिमलेगी , उससे आगे कुछ अन्य वि�=ान् भी ऐसे कायL में प्र�ृत्त होंगे, ऐसी आर्शा की जानी चाविहए। कुछ �ैदिदक संज्ञाए ंविकस प्रकार बदल गई , इसके उदाहरणस्�रूप अविहबु�ध्न्य र्शब्द शिलया जा सकता है , जो एक दे� - संज्ञा बन गई है। इस कोष में भी �ैसी ही प्रवि�धि� है और संदभ� - संकेत दिदए गए हैं। और तो

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और , एक अविहबु�ध्न्य संविहता भी उपलब्ध है। लगता है मूलतः ये दो र्शब्द थे अविह: बुत्मिध्नय - तलहटी में रहने �ाला अविह। �ेदों में स्प� उल्लेख है - अहे बुध्न्य मंतं्र मे गोपाय। आश्चय� की बात यह है विक यह बुत्मिध्नय अविह अविहबु�ध्न्यः बनकर एक नाम बन गया। पुरानी पहचान धिमट गई। इस कोष में इसका विन��चन विकसी ज्योv वितष ग्रन्थ के संदभ� में बुध रूपी बोध प्रात्विप्त के माग� में स्थाविपत विकया जा सकने �ाला अविह कहकर तो दे दिदया गया है। अ F छा होता बुध्न्य अविह विन��चन स्प� ही दे दिदया जाता। जैसा ऊपर उल्लेख है , इस प्रकार के अध्ययनों का कोई ओर - छोर नहीं है , अतः पूण�ता तो ऐसे प्रयत्नों को प्राv त्साविहत, समर्थिथंत और पूरक अध्ययनों से उपबृंविहत करने से ही आएगी।

�ैदिदक अ�धारणाओं का पुराण , दर्श�न तथा अन्य र्शास्त्रीय परम्पराओं की समत्विन्�त सनातनता में अध्ययन करने का जो क्रम मधुसूदन ओझा, विगरिरधर र्शमा� चतु�]दी आदिद ने चलाया था , उसे ऐसे प्रयत्न बखूबी आगे बढाते हैं। इस ग्रन्थ की �ैदिदक दिटप्पणिणयों में डां. फतहसिसंह का अणिभगम पूण�तः र्शोधात्मक, तथ्यपरक ए�ं �स्तुविनष्ठ है। प्रमाण और सन्दभ� देकर �े अपनी बात कहते हैं और जहां वि�रे्शष अध्ययन अपेणिUत है , �हां अपना तक� रु्शद्ध अनुमान यह कहकर उल्पिल्लब्दिखत कर देते हैं विक इस दिदर्शा में आगे अनुसंधान विकया जा सकता है। कलानाथ र्शास्त्री राजस्थान पवित्रका १६ - ६- १९९६

पुराण : �ेदालोक में�ैदिदक �ाङ्मय के प्रख्यात वि��ेचक डाँ फतहसिसंह के सुयोग्य शिर्शष्य श्री वि�विपन कुमार ने अपनी अनुजा डाँ राधा गुप्ता के सहकार से �ैदिदक दिटप्पणिणयों सविहत पुराणों के वि�षयों की अनुक्रमणिणका की संरचना करने का उपक्रम विकया है। इसके प्रथम खण्ड से इसकी उपादेयता और महनीयता स्प� है। इस खण्ड में अ , आ और इ से आरम्भ होने �ाले ४०७ र्शब्दों को शिलया गया है। इनमें से अधिधकांर्श र्शब्दों पर �ैदिदक सन्दभL की वि��ेचना के साथ वि�र्शद दिटप्पणिणयाँ प्रस्तुत की गई हैं। इससे �ैदिदक और पौराणिणक �ाङ्मय के अन्त: - सम्बन्ध का प्रकार्शन सम्भ� हो सका है।

समस्त वि�श्व के शिचन्तकों पर और वि�रे्शष रूप से भारतीय शिचन्तन - परम्परा पर �ैदिदक वि�चारों का अप्रवितम प्रभा� है। �ैदिदक �ाङ्मय में विनविहत गूढ तत्त्�ों के वि�शे्लषण के प्रयास वि�=ान् करते रहे हैं। महाभारत के आरम्भ ( १.१.२७ ) में कहा गया है विक इवितहास और पुराण �ैदिदक शिचन्तन के सम्यक् उपबृंहण ( अथा�त् , वि��ेचन ) के शिलए हैं अन्यथा �ेद मन्त्रों के अध्ययन - मात्र से �ेदों की रUा सम्भ� नहीं है। �हीं (१.१.८६ ) में कहा गया है - पुराणपूण�चन्दे्रण श्रुवितज्योv त्स्ना प्रकाशिर्शता। पुराण वि�वि�ध आख्यानों और उपाख्यानों =ारा , लोकशिर्शUण के साथ साथ, �ेदों के महनीय शिचन्तन का वि��ेचन प्रस्तुत करते हैं। विकन्हीं वि�=ानों के वि�चारानुसार �ेदाथ� के उपबृंहण करने �ाले वि�वि�ध प्रयासों में पुराणों की प्रमुखता है।

उपबृंहण र्शब्द का अथ� है विकसी तथ्य की पुधि� अथ�ा वि��ेचन। �ेदाथ� के उपबृंहण के शिलए पुराणों ने अनेक वि�धाए ंअपनाई हैं। जैसे , कहीं �ैदिदक मन्त्रों की पदा�ली पौराणिणक स्तुवितयों में स्प�तः परिरलणिUत होती है। ऋग्�ेद के पुरुष - सूक्त की पदा�ली वि�ष्णु की पौराणिणक स्तुवितयों में बहुधा धिमलती है। �ैदिदक वि�चारों का व्याख्यान कथानक - रूप में वि�वि�ध स्थलों पर प्राप्त होता है। उदाहरण - स्�रूप ,

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र्शतपथ ब्राह्मण ३.४.४.१८ और तैणित्तरीय आरण्यक १.१२.४ में अहल्यायै जार जैसे �ाक्य से रावित्र के अंधकार के विन�ारक सूय� के उदय का �ण�न प्रस्तुत हुआ है। �ैदिदक साविहत्य में अहल्या र्शब्द रावित्र का �ाचक है। अह: ( दिदन ) का जिजसमें लय होता है �ह अहल्या ( रावित्र ) है। रावित्र का जरण ( वि�चे्छद ) करने �ाला सूय� है। पुराणों में गौतम ऋविष की पत्नी अविहल्या के साथ इन्द्र नामक दे� का उपपवित रूप में समागम �र्भिणंत है। यहाँ , �ैदिदक और पौराणिणक �ण�नों में , अन्तर र्शब्दप्रयोग - गत भी है। �ेद में अहल्या और पुराण में अविहल्या , दो णिभन्न - णिभन्न �त�विनयां हैं। विकन्तु इस स्�ल्प भेद को छोड दें तो दोनों में साम्य स्प� है। सूय� रावित्र का जरण ( जीण�तापादन ) करता है तो इन्द्र अविहल्या का।

�ैदिदक और पौराणिणक �ाङ्मयों में �र्भिणंत तथ्यों की समानता को बूझने की दिदर्शा में वि�विपन कुमार और राधा गुप्ता ने संदभ� कोर्श की रचना का जो उपक्रम विकया है उससे �ैदिदक तथ्यों का वि��ेचन और उभय �ाङ्मयों के अन्तः संबंधों का गहन परिरचय प्राप्त हो सकेगा , यह वि�श्वास है।

पुराण - वि�षयानुक्रमणिणका के इस प्रथम खण्ड में र्शब्दों के पौराणिणक संदभL का उल्लेख है और उनकी वि��ेचना हेतु �ैदिदक �ाङ्मय में उन - उन र्शब्दों के प्रयोग - स्थलों का विनद]र्श विकया गया है। �ैदिदक तथ्यों की वि��ेचना में पौराणिणक �ण�नों =ारा धिमलने �ाली सहायता की ओर इंविगत विकया गया है। उदाहरण - स्�रूप , इषु र्शब्द के वि�णिभन्न प्रयोगों की समीUा करते हुए इस र्शब्द का अणिभप्रेताथ� सीधा , सरल विनर्दिदं� विकया है। अनेक दिटप्पणिणयों =ारा वि�णिभन्न र्शब्दों के प्रयोगों के लम्बे इवितहास पर व्यापक दृधि� से वि�चार करने का महनीय काय� विकया गया है। आर्शा है , अविग|म खण्डों में �े �ैदिदक तथ्यों की वि��ेचना में और भी महत्त्�पूण� सामग्री प्रस्तुत करेंगे। श्री वि�विपन कुमार ने वि�ज्ञान की उच्च शिर्शUा प्राप्त की है। उनके �ैदिदक ज्ञान के साथ वि�ज्ञान का गंभीर परिरचय सोने में सुहागे के रूप में यहाँ इस ग्रन्थ में परिरलणिUत होता है। - श्री रमेर्शचन्द्र चतु�]दी ( श्री लालबहादुर र्शास्त्री राधि�}य संस्कृत वि�द्यापी| , नई दिदल्ली ) �ेद सवि�ता, शिसतम्बर १९९७

जो काय� लेखक - =य श्री वि�विपन कुमार और डाँ राधा गुप्ता =ारा अब आरम्भ विकया जा रहा है, �ह अबसे ५० �ष� पू�� समाप्त हो जाना चाविहए था। प्रस्तुत काय� में �ण�माला के के�ल तीन अUरों - अ, आ � इ की पुराण अनुक्रमणिणका प्रस्तुत की गई है। इस प्रकार लगता है विक �ण�माला के ५० अUरों की पूरी अनुक्रमणिणका बनाने के शिलए इस आकार के १५ -२० भागों की आ�श्यकता पडेगी। आज के भौवितक प्रवितस्पधा� के युग में संस्कृत का गहन अध्ययन करने का समय प्रत्येक व्यशिक्त के पास नहीं है। लेविकन इसका अथ� यह नहीं है विक उनकी आध्यात्मित्मक जिजज्ञासा कम है। अतः ऐसे काय� की बहुत आ�श्यकता है जो शिर्शणिUत �ग� की आध्यात्मित्मक जिजज्ञासा को पूरा कर सके। अब प्रस्तुत पुस्तक इस दिदर्शा में एक और प्रयास है। हमारे पौराणिणक साविहत्य में बहुत सा ज्ञान भरा पडा है जिजसे प्रकार्श में लाने की आ�श्यकता है। लेखकों ने अपनी वि�षय अनुक्रमणिणका बनाते समय स��मान्य १८ पुराणों को तो शिलया ही है , इसके अवितरिरक्त हरिर�ंर्श पुराण , दे�ीभाग�त पुराण , �ाल्मीविक रामायण , कथासरिरत्सागर , योग�ाशिसष्ठ , लक्ष्मीनारायण संविहता , महाभारत आदिद ग्रन्थों को भी अपनी अनुक्रमणिणका में सत्मिम्मशिलत विकया है जिजससे यह अनुक्रमणिणका पौराणिणक ज्ञान की दृधि� से अपनी पूण�ता को प्राप्त करती हुई प्रतीत होती है।

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हो सकता है विक विकसी आध्यात्मित्मक रहस्य का उद्घाटन १८ पुराणों में न हो पाया हो और �ह रामायण , महाभारत आदिद ग्रन्थों में हो गया हो। उदाहरण के शिलए अगस्त्य ऋविष को पुराणों में समुद्र का पान करते हुए �र्भिणंत विकया गया है। लेविकन यह समुद्र कौन सा है जिजसका अगस्त्य ऋविष पान करते हैं , इसका उद्घाटन के�ल योग�ाशिसष्ठ में ही विकया गया है विक यह काल का समुद्र है। और जिजन तथ्यों का रहस्योद्घाटन पौराणिणक साविहत्य में नहीं हो पाया , उनको लेखकों =ारा �ैदिदक साविहत्य के माध्यम से अपनी दिटप्पणिणयों में उद्घादिटत करने का प्रयास विकया है। जहां लेखकों ने रहस्योद्घाटन करने में अपने का असमथ� पाया , �हां इन्होंने उन प्रश्नों को भवि�ष्य के शिलए खुला छोड दिदया है। इसके अवितरिरक्त सबसे अच्छी बात यह है विक लेखकों ने विकसी उद्घादिटत तथ्य के शिलए ऐसा नहीं शिलखा है विक यही स��मान्य तथ्य है , ब†ल्क उन्होंने शिलखा है विक उन्हें ऐसा प्रतीत होता है , अथ�ा ऐसी संभा�ना है। अ F छा होता यदिद परिरशिर्श� के रूप में लेखक �ैदिदक साविहत्य के �ह अंर्श भी दे देते जो �ह समझ नहीं पाए हैं क्योंविक पा|क को यह जानने का अधिधकार है विक कहीं लेखकों ने तथ्यों को अपने पU में तोड - मरोड तो नहीं शिलया है , अथ�ा के�ल अपने पU की बात स्�ीकार करके दूसरे पU की उपेUा तो नहीं कर दी है। आर्शा है आगे के भागों में लेखक इस पर वि�चार करेंगे।

बहुत सुन्दर प्रयास होते हुए भी यह ग्रन्थ तु्रदिटयों से मुक्त नहीं है। पुराणों में उपलब्ध बहुत सी सामग्री प्रस्तुत अनुक्रमणिणका में स्थान नहीं पा सकी है। उदाहरण के शिलए , स्कन्द पुराण के �ैष्ण� खण्ड के अन्तग�त जगन्नाथ Uेत्र माहात्म्य में अध्याय ४ में अन्त�]दी का �ण�न आता है जो पौराणिणक दृधि� से बहुत महत्त्�पूण� है। लेविकन प्रस्तुत अनुक्रमणिणका में अन्त�]दी र्शीष�क के अन्तग�त इसका उल्लेख ही नहीं है। ऐसा लगता है जैसे लेखकों ने पुराणों का गम्भीर अध्ययन ही न विकया हो। अनुक्रमणिणका में कहीं तो महाभारत से सामग्री का चयन कर शिलया गया है , कहीं �ह छोड दिदया गया है। यही हाल दिटप्पणिणयों का है। विकसी - विकसी र्शीष�क के शिलए तो लम्बी - लम्बी दिटप्पणिणयां शिलख डाली हैं , विकसी के शिलए साविहत्य का गहन अध्ययन विकए विबना छोटी सी दिटप्पणी शिलख दी है और विकसी र्शीष�क के शिलए विबल्कुल ही नहीं शिलखी है। विफर , लेखकों ने जो सहायक ग्रन्थ सूची दी है , उससे लगता है विक लेखकों =ारा सामग्री का चयन बहुत अधूरा है। तात्विन्त्रक साविहत्य को तो लेखकों ने छुआ ही नहीं है , गृह्य सूत्र ग्रन्थों को भी नहीं छुआ है। जो कुछ श्रौत सूत्रों के ग्रन्थ शिलए हैं , �ह भी विगने चुने हैं। और दिटप्पणिणयों के प|न से यह ज्ञात हो जाता है विक लेखकों ने अपने दिटप्पणी लेखन में इन सबका उपयोग भी नहीं विकया है। मात्र दिदखा�े के शिलए ग्रन्थों को सूची में सत्मिम्मशिलत कर शिलया गया है। यह एक बडा दोष है जिजसे आगे के भागों में सुधारा जाना चाविहए। एक बात और है। हमारा सारा प्राचीन ज्ञान आध्यात्मित्मक रहस्यों पर आधारिरत है। लेखक=य से यह आर्शा नहीं की जा सकती विक साधना के Uेत्र में उनका वि�कास बहुत अधिधक होगा। हमारे देर्श में ऐसे व्यशिक्त वि�द्यमान हैं जिजनकी साधना बहुत उच्च स्तर की है। यदिद लेखक अपना लेखन काय� करते समय ऐसे महापुरुषों से परामर्श� कर लेते तो प्रस्तुत काय� पूण�ता की ओर अग्रसर हो सकता था।

आर्शा है विक यह ग्रन्थ सनातन धमा��लत्मिम्बयों , आय� समाजिजययों और नाब्धिस्तकों , सबके शिलए समान रूप से उपयोगी होगा। यही नहीं , इसमें मुल्पिस्लम धमा��लत्मिम्बयों के शिलए भी अकबर और ईद आदिद र्शब्दों की नई व्याख्याए ंप्रस्तुत हैं। अकबर र्शब्द की व्याख्या करते समय यदिद अक�ारिर र्शब्द को थोडा और स्प� कर दिदया जाता तो सभी लोगों की समझ में आ सकता था। - डाँ सल्पिच्चदानन्द र्शास्त्री

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सा��देशिर्शक साप्ताविहक , नई दिदल्ली ११ अगस्त , १९९६

श्री वि�विपन कुमार तथा डाँ. राधा गुप्ता =ारा पुराण वि�षय अनुक्रमणिणका नाम से तैयार विकया गया ग्रन्थ स��था स्तुत्य है। प्रथम भाग में के�ल अ से इ तक ही पहुf चा जा सका है। परन्तु १८६ पृष्ठों के इस भाग को देखकर भी यह अनुमान लगाना कदि|न नहीं विक पूरा ग्रन्थ भारतीय परम्परा को समझने के शिलए अत्यन्त उपयोगी होगा। यद्यविप नाम से यही प्रतीत होता है विक इसका सम्बन्ध पुराण साविहत्य से होगा , परन्तु अनेक संदभL में तथा दिटप्पणिणयों के लेखन में �ैदिदक ग्रन्थों का उल्लेख कर स्प� हो जाता है विक यह ग्रन्थ �स्तुतः पुराणों की �ेदमूलकता शिसद्ध कर रहा है। यह इसशिलए महत्�पूण� है विक प्रायः पुराणों को गपोडों के ग्रन्थ माना जाता है , यद्यविप पुराण स्�यं इवितहास पुराणाभ्यां �ेदान् समुपबृंहयेत की रट लगाते रहे हैं।

विनसंदेह , इससे पुराणों ए�ं रामायण - महाभारत के अनेक प्रसंगों में प्रयुक्त प्रतीक�ाद को समझने में बडी सहायता धिमलेगी। इससे भी बडी बात यह है विक यह प्रतीक�ाद �ेदमूलक शिसद्ध होगा। ऐसे महत्�पूण� और उपयोगी काय� के शिलए लेखक=य बधाई के पात्र हैं। आर्शा है यह ग्रन्थ प्रत्येक पुस्तकालय की र्शोभा बढाएगा और प्राचीन �ाङ्मय , इवितहास और संस्कृवित का प्रत्येक अध्येता इससे लाभात्विन्�त होगा। फतहसिसंह एम.ए., डी.शिलट. पू�� विनदेर्शक , प्राच्य वि�द्या प्रवितष्ठान ,जोधपुर , और �ेद संस्थान , नई दिदल्ली �त�मान विनदेर्शक, �ैदिदक अनुसन्धान केन्द्र , जोधपुर

मुख्य ग्रन्थ सूचीअब्दिग्न पुराण ( नाग प्रकार्शक , दिदल्ली ; विहन्दी अनु�ाद : कल्याण वि�रे्शषांक �ष� ४४ � ४५ , गीतापे्रस , गोरखपुर )कथासरिरत्सागर ( विबहार राष्ट्रभाषा परिरषद ् , पटना( विहन्दी अनु�ाद सविहत ) ; मोतीलाल बनारसी दास , दिदल्ली ( के�ल मूल संस्कृत )कूम� पुराण ( नाग प्रकार्शक , दिदल्ली ; कल्याण वि�रे्शषांक �ष�? गीतापे्रस गोरखपुर )गणेर्श पुराण ( नाग प्रकार्शक, दिदल्ली )गरुड पुराण ( चौखम्बा वि�द्याभ�न , �ाराणसी तथा नाग प्रकार्शक , दिदल्ली )गग� संविहता ( खेमराज श्रीकृष्ण दास , बम्बई ; विहन्दी अनु�ाद : कल्याण वि�रे्शषांक �ष� ४४ � ४५ , गीतापे्रस , गोरखपुर )दे�ीभाग�त पुराण ( नाग प्रकार्शक , दिदल्ली )नारदीय पुराण ( नाग प्रकार्शक , दिदल्ली )पद्म पुराण ( नाग प्रकार्शक , दिदल्ली )

Page 16: पुराण विषय अनुक्रमणिका - Sanskrit Documents · Web viewकत पय व श ष व भ त य स मन आत ह और इस भ त

ब्रह्म पुराण ( नाग प्रकार्शक , दिदल्ली ; विहन्दी साविहत्य सम्मेलन , प्रयाग ( विहन्दी अनु�ाद सविहत ) ) ब्रह्म�ै�त्त� पुराण ( राधाकृष्ण मोर, कलकत्ता ; मोतीलाल बनारसी दास , दिदल्ली )ब्रह्माण्ड पुराण ( कृष्ण दास अकादमी , �ाराणसी )भवि�ष्य पुराण ( नाग प्रकार्शक , दिदल्ली ; विहन्दी साविहत्य सम्मेलन , प्रयाग ( विहन्दी अनु�ाद सविहत ) ) भाग�त पुराण ( गीतापे्रस , गोरखपुर ( विहन्दी अनु�ाद सविहत ) ) मत्स्य पुराण ( कल्याण वि�रे्शषांक �ष� ५८ � ५९ , गीतापे्रस , गोरखपुर ( विहन्दी अनु�ाद सविहत ) ; नाग प्रकार्शक , दिदल्ली )महाभारत ( गीतापे्रस , गोरखपुर ( विहन्दी अनु�ाद सविहत ) ) , माक� ण्डेय पुराण ( मनसुसराय मोर , कलकत्ता ; नाग प्रकार्शक ,दिदल्ली ) योग�ाशिसष्ठ ( मोतीलाल बनारसी दास , दिदल्ली )लक्ष्मीनारायण संविहता ( चौखम्बा संस्कृत सीरीज आविफस , �ाराणसी )शिलङ्ग पुराण ( मोतीलाल बनारसीदास , दिदल्ली )�राह पुराण ( मेहरचन्द लछमनदास , दिदल्ली )�ामन पुराण ( कल्याण �ष� ५६ वि�रे्शषांक , गीतापे्रस , गोरखपुर ( विहन्दी अनु�ाद सविहत ) ; नाग प्रकार्शक , दिदल्ली )�ायु पुराण ( आनन्दाश्रम , पूना ) ; नाग प्रकार्शक ,दिदल्ली )�ाल्मीविक रामायण ( गीतापे्रस , गोरखपुर ( विहन्दी अनु�ाद सविहत ) )वि�ष्णु पुराण ( गीतापे्रस , गोरखपुर ( विहन्दी अनु�ाद सविहत ) ; नाग प्रकार्शक, दिदल्ली )वि�ष्णु धम�त्तर पुराण ( नाग प्रकार्शक , दिदल्ली ) शिर्श� पुराण ( नाग प्रकार्शक, दिदल्ली )स्कन्द पुराण ( नाग प्रकार्शक , दिदल्ली )हरिर�ंर्श पुराण ( गीतापे्रस , गोरखपुर ( विहन्दी अनु�ाद सविहत ) )


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