ram laxman parsuram sanbad

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राम लक्ष्मण परशुराम संवाद

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जन्म & रामबोला१४९७ ई० ( संवत १५५४विव० ) राजापुर, उत्तर प्रदेश, भारत गुरु/शि�क्षक & नरहरिरदासखि�ताब/सम्मान & गोस्वामी, अभिभनववाल्मीवि), इत्यादिदकथन & सीयराममय सब जग जानी । )रउँ प्रनाम जोरिर जुग पानी ॥

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तुलसीदास गोस्वामी तुलसीदास 1511 - 1623 ए) महान )विव थे। उन)ा जन्म सोरों शू)रक्षेत्र (वत9मान )ासगंज जनपद) उत्तर प्रदेश में हुआ था। )ुछ विवद्वान् आप)ा जन्म राजापुर में हुआ मानते हैं। अपने जीवन)ाल में उन्होंने १२ ग्रन्थ लिलखे। उन्हें संस्)ृत विवद्वान होने )े साथ ही विहन्दी भाषा )े प्रलिसद्ध और सव9शे्रष्ठ )विवयों में ए) माना जाता है। उन)ो मूल आदिद )ाव्य रामायण )े रचयियता महर्षिषR वाल्मीवि) )ा अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरिरतमानस वाल्मीवि) रामायण )ा प्र)ारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है जिजसमें अन्य भी )ई )ृवितयों से महत्वपूण9 सामग्री समाविहत )ी गयी थी। रामचरिरतमानस )ो समस्त उत्तर भारत में बडे़ भलिXभाव से पढ़ा जाता है। इस)े बाद विवनय पवित्र)ा उन)ा ए) अन्य महत्वपूण9 )ाव्य है। त्रेता युग )े ऐवितहालिस) राम-रावण युद्ध पर आधारिरत उन)े प्रबन्ध )ाव्य रामचरिरतमानस )ो विवश्व )े १०० सव9शे्रष्ठ लो)विप्रय )ाव्यों में ४६वाँ स्थान दिदया गया।

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रामचरिरतमानस

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साहि�त्यि��क का� विवनयपवित्र)ा

विवनयपवित्र)ा

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दोहावली

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)विवतावली

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हनुमान चालीसा

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वैराग्य सन्दीपनी

साहि�त्यि��क का�

वैराग्य सन्दीपनी

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जान)ी मंगल

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पाव9ती मंगल

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तुलसीदास जी जब )ाशी )े विवख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो ए) रात )लिलयुग मूत9 रूप धारण )र उन)े पास आया और उन्हें पीड़ा पहँुचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी )ा ध्यान वि)या। हनुमान जी ने साक्षात् प्र)ट हो)र उन्हें प्राथ9ना )े पद रचने )ो )हा, इस)े पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिन्तम )ृवित विवनय-पवित्र)ा लिलखी और उसे भगवान )े चरणों में समर्षिपRत )र दिदया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर )र दिदये और तुलसीदास जी )ो विनभ9य )र दिदया।

संवत ् १६८० में श्रावण )ृष्ण तृतीया शविनवार )ो तुलसीदास जी ने "राम-राम" )हते हुए अपना शरीर परिरत्याग वि)या।

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'राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद' बाल)ांड से लिलया गया है। यह तुलसीदास द्वारा रलिचत है। इस )ाव्यांश में सीता-स्वयंवर )े समय )ा वण9न है। लिशव धनुष भंग होने )ा समाचार सुन)र परशुराम क्रोयिधत हो)र सभा में उपस्थिस्थत हो जाते हैं। वह उस व्यलिX पर बहुत क्रोयिधत

होते हैं, जिजसने उन)े आराध्य देव लिशव )ा धनुष तोड़ा है। वह उसे दण्ड देने )े उदे्दश्य से सभा में पु)ारते हैं। यहीं से राम-लक्ष्मण-परशुराम

संवाद )ा आरंभ होता है। स्थिस्थवित )ो विबगड़ती देख)र राम विवनम्र भाव से उन)ा क्रोध शान्त )रने )ा प्रयास )रते हैं। परशुराम )ो राम )े वचन अचे्छ नहीं लगते। लक्ष्मण अपने भाई )े साथ ऋविष )ा ऐसा

व्यवहार देख)र स्वयं )ो रो) नहीं पाते। इस तरह इस संवाद में उन)ा आगमन भी हो जाता है। वह परशुराम जी पर नाना प्र)ार )े वं्यग्य

)सते हैं।

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उन)े व्यंग्य परशुराम )ो शूल )े समान चुभते हैं। उन)ा क्रोध )म होने )े स्थान पर बढ़ता जाता है। परशुराम अपने अंह)ार )े )ारण सभी क्षवित्रयों )ा अपमान )रते हैं। लक्ष्मण )ो यह सहन नहीं होती। वह भी उन)े )टाक्षों )ा उत्तर )टाक्षों में देते हैं। अंत में उन)े द्वारा ऐसी अविप्रय बात बोल दी जाती है, जिजस)े )ारण सभा में हाहा)ार मच जाता है। राम स्थिस्थवित )ो और विबगड़ती देख)र लक्ष्मण )ो चुप रहने )ा सं)ेत )रते हैं। वह परशुराम )े क्रोध )ो शान्त )रने )ा प्रयास )रते हैं।

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कहिवता का सारां�यह अंश रामचरिरतमानस )े बाल )ांड से लिलया गया है। सीता स्वयंवर मे

राम द्वारा लिशव-धनुष भंग )े बाद मुविन परशुराम )ो जब यह समाचार यिमला तो वे क्रोयिधत हो)र वहाँ आते हैं। लिशव-धनुष )ो खंविडत देख)र वे आपे से बाहर हो जाते हैं। राम )े विवनय और विवश्वायिमत्र )े समझाने पर तथा राम )ी शलिX )ी परीक्षा ले)र अंततः उन)ा गुस्सा शांत होता है। इस बीच राम, लक्ष्मण और परशुराम )े बीच जो संवाद हुआ उस प्रसंग )ो यहाँ प्रस्तुत वि)या गया है। परशुराम )े क्रोध भरे वाक्यों )ा उत्तर

लक्ष्मण वं्यग्य वचनों से देते हैं। इस प्रसंग )ी विवशेषता है लक्ष्मण )ी वीर रस से पगी वं्यग्योलिXयाँ और वं्यजना शैली )ी सरस अभिभव्यलिX।

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कहिवतानाथ संभुधनु भंजविनहारा, होइविह )ेउ ए) दास तुम्हारा।।

आयेसु )ाह )विहअ वि)न मोही। सुविन रिरसाइ बोले मुविन )ोही।।

सेव)ु सो जो )रै सेव)ाई। अरिर)रनी )रिर )रिरअ लराई।।

सुनहु राम जेविह लिसवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिरपु मोरा।।

सो विबलगाउ विबहाइ समाजा। न त मारे जैहहिहR सब राजा॥

सुविन मुविनबचन लखन मुसु)ाने। बोले परसुधरविह अवमाने॥

बहु धनुहीं तोरीं लरिर)ाईं। )बहुँ न अलिस रिरस )ीन्हिन्ह गोसाईं॥

एविह धनु पर ममता )ेविह हेतू। सुविन रिरसाइ )ह भृगु)ुल)ेतू॥

रे नृप बाल) )ाल बस बोलत तोविह न सँभार।

धनुही सम वितपुरारिर धनु विबदिदत स)ल संसार।। 

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भावाथ9- परशुराम )े क्रोध )ो देख)र श्रीराम बोले - हे नाथ! लिशवजी )े धनुष )ो तोडऩे वाला आप)ा )ोई ए) दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं )हते। यह सुन)र मुविन क्रोयिधत हो)र बोले )ी सेव) वह होता है जो सेवा )रे, शत्रु )ा )ाम )र)े तो लड़ाई ही )रनी चाविहए। हे राम! सुनो, जिजसने लिशवजी )े धनुष )ो तोड़ा है, वह सहस्रबाहु )े समान मेरा शतु्र है। वह इस समाज )ो छोड़)र अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएगेँ। परशुराम )े वचन सुन)र लक्ष्मणजी मुस्)ुराए और उन)ा अपमान )रते हुए बोले- बचपन में हमने बहुत सी धनुविहयाँ तोड़ डालीं, वि)न्तु आपने ऐसा क्रोध )भी नहीं वि)या। इसी धनुष पर इतनी ममता वि)स )ारण से है? यह सुन)र भृगुवंश )ी ध्वजा स्वरूप परशुरामजी क्रोयिधत हो)र )हने लगे - अरे राजपुत्र! )ाल )े वश में हो)र भी तुझे बोलने में )ुछ होश नहीं है। सारे संसार में विवख्यात लिशवजी )ा यह धनुष क्या धनुही )े समान है?

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लखन )हा हँलिस हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।

)ा छवित लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन )े भोरें।।

छुअत टूट रघुपवितहु न दोसू। मुविन विबनु )ाज )रिरअ )त रोसू।।

बोले लिचतइ परसु )ी ओरा। रे सठ सुनेविह सुभाउ न मोरा।।

बाल)ु बोलिल बधउँ नहिहR तोही। )ेवल मुविन जड़ जानविह मोह।।

बाल ब्रह्मचारी अवित )ोही। विबस्व विबदिदत छवित्रय)ुल द्रोही।।

भुजबल भूयिम भूप विबनु )ीन्ही। विबपुल बार मविहदेवन्ह दीन्ही।।

सहसबाहु भुज छेदविनहारा। परसु विबलो)ु महीप)ुमारा।।

मातु विपतविह जविन सोचबस )रलिस महीसवि)सोर।

गभ9न्ह )े अभ9) दलन परसु मोर अवित घोर।।

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भावाथ9- लक्ष्मणजी ने हँस)र )हा- हे देव! सुविनए, हमारे जान में तो सभी धनुष ए) से ही हैं। पुराने धनुष )े तोड़ने में क्या हाविन-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन )े धोखे से देखा था। परन्तु यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी )ा भी )ोई दोष नहीं है। मुविन! आप विबना ही )ारण वि)सलिलए क्रोध )रते हैं? परशुरामजी अपने फरसे )ी ओर देख)र बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना। मैं तुझे बाल) जान)र नहीं मारता हूँ। अरे मूख9! क्या तू मुझे विनरा मुविन ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षवित्रय)ुल )ा शत्रु तो विवश्वभर में विवख्यात हँू। अपनी भुजाओं )े बल से मैंने पृथ्वी )ो राजाओं से रविहत )र दिदया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों )ो दे डाला। हे राज)ुमार! सहस्रबाहु )ी भुजाओं )ो )ाटने वाले मेरे इस फरसे )ो देख। अरे राजा )े बाल)! तू अपने माता-विपता )ो सोच )े वश न )र। मेरा फरसा बड़ा भयान) है, यह गभ� )े बच्चों )ा भी नाश )रने वाला है।

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विबहलिस लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।

पुविन पुविन मोविह देखाव )ुठारू। चहत उड़ावन फँूवि) पहारू।।

इहाँ )ुम्हड़बवितया )ोउ नाहीं। जे तरजनी देन्हिख मरिर जाहीं।।

देन्हिख )ुठारु सरासन बाना। मैं )छु )हा सविहत अभिभमाना।।

भृगुसुत समुजिझ जनेउ विबलो)ी। जो )छु )हहु सहउँ रिरस रो)ी।।

सुर मविहसुर हरिरजन अरु गाई। हमरें )ुल इन्ह पर न सुराई।।

बधें पापु अप)ीरवित हारें। मारतहँू पा परिरअ तुम्हारें।।

)ोदिट )ुलिलस सम बचनु तुम्हारा। ब्यथ9 धरहु धनु बान )ुठारा।।

जो विबलोवि) अनुलिचत )हेउँ छमहु महामुविन धीर।

सुविन सरोष भृगुबंसमविन बोले विगरा गंभीर।। 

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भावाथ9- लक्ष्मणजी हँस)र )ोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर आप अपने )ो बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे )ुल्हाड़ी दिदखाते

हैं। फँू) से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। यहाँ )ोई )ुम्हडे़ )ी बवितया (बहुत छोटा फल) नहीं है, जो तज9नी (अंगूठे )ी पास )ी) अँगुली )ो देखते ही मर जाती हैं। )ुठार और धनुष-बाण देख)र ही मैंने )ुछ अभिभमान सविहत

)हा था। भृगुवंशी समझ)र और यज्ञोपवीत देख)र तो जो )ुछ आप )हते हैं, उसे मैं क्रोध )ो रो))र सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान

)े भX और गो- इन पर हमारे )ुल में वीरता नहीं दिदखाई जाती है। क्योंवि) इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अप)ीर्षितR होती है, इसलिलए आप मारें तो भी आप)े पैर ही पड़ना चाविहए। आप)ा ए)-ए) वचन ही )रोड़ों वज्रों )े समान है। धनुष-बाण और )ुठार तो

आप व्यथ9 ही धारण )रते हैं। इन्हें देख)र मैंने )ुछ अनुलिचत )हा हो, तो उसे हे धीर महामुविन! क्षमा )ीजिजए। यह सुन)र भृगुवंशमभिण परशुरामजी

क्रोध )े साथ गंभीर वाणी बोले।

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)ौलिस) सुनहु मंद यहु बाल)ु। )ुदिटल )ालबस विनज )ुल घाल)ु।।

भानु बंस रा)ेस )लं)ू। विनपट विनर)ुंस अबुध असं)ू।।

)ाल )वलु होइविह छन माहीं। )हउँ पु)ारिर खोरिर मोविह नाहीं।।

तुम्ह हट)हु जौं चहहु उबारा। )विह प्रतापु बलु रोषु हमारा।।

लखन )हेउ मुविन सुजसु तुम्हारा। तुम्हविह अछत )ो बरनै पारा।।

अपने मँुह तुम्ह आपविन )रनी। बार अन)े भाँवित बहु बरनी।।

नहिहR संतोषु त पुविन )छु )हहू। जविन रिरस रोवि) दुसह दुख सहहू।।

बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।। 

सूर समर )रनी )रहिहR )विह न जनावहिहR आपु।

विबद्यमान रन पाइ रिरपु )ायर )थहिहR प्रतापु।।

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भावाथ9- हे विवश्वायिमत्र! सुनो, यह बाल) बड़ा )ुबुजिद्ध और )ुदिटल है, )ाल )े वश हो)र यह अपने )ुल )ा घात) बन रहा है। यह सूय9वंश रूपी पूण9 चन्द्र )ा )लं) है। यह विबल्)ुल उद्दण्ड, मूख9 और विनडर है। अभी क्षण भर में यह )ाल )ा ग्रास हो जाएगा। मैं पु)ार)र )हे देता हूँ, विफर मुझे दोष नहीं देना। यदिद तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध

बतला)र इसे मना )र दो। लक्ष्मणजी ने )हा- हे मुविन! आप)ा सुयश आप)े रहते दूसरा )ौन वण9न )र स)ता है? आपने अपने ही मँुह से

अपनी )रनी अने)ों बार बहुत प्र)ार से वण9न )ी है। इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो विफर )ुछ )ह डालिलए। क्रोध रो))र असह्य दुःख मत

सविहए। आप वीरता )ा व्रत धारण )रने वाले, धैय9वान और क्षोभरविहत हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते। शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता )ा प्रदश9न )रते हैं, )ह)र अपने )ो नहीं जनाते। शत्रु )ो युद्ध में उपस्थिस्थत पा)र )ायर

ही अपने प्रताप )ी डींग मारा )रते हैं।

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तुम्ह तौ )ालु हाँ) जनु लावा। बार बार मोविह लाविग बोलावा।।

सुनत लखन )े बचन )ठोरा। परसु सुधारिर धरेउ )र घोरा।।

अब जविन देइ दोसु मोविह लोगू। )टुबादी बाल)ु बधजोगू।।

बाल विबलोवि) बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरविनहार भा साँचा।।

)ौलिस) )हा छयिमअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिहR न साधू।।

खर )ुठार मैं अ)रुन )ोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।। 

उतर देत छोड़उँ विबनु मारें। )ेवल )ौलिस) सील तुम्हारें।।

न त एविह )ादिट )ुठार )ठोरें। गुरविह उरिरन होतेउँ श्रम थोरे।।

गायिधसूनु )ह हृदयँ हँलिस मुविनविह हरिरअरइ सूझ।

अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहँु न बूझ अबूझ।।

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भावाथ9- आप तो मानो )ाल )ो हाँ) लगा)र बार-बार उसे मेरे लिलए बुलाते हैं। लक्ष्मणजी )े )ठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयान) फरसे )ो सुधार)र हाथ में ले लिलया और बोले - अब लोग मुझे दोष न दें। यह )ड़वा बोलने वाला बाल) मारे जाने )े ही योग्य है। इसे बाल) देख)र मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच

मरने )ो ही आ गया है। विवश्वायिमत्रजी ने )हा- अपराध क्षमा )ीजिजए। बाल)ों )े दोष और गुण )ो साधु लोग नहीं विगनते। परशुरामजी बोले - तीखी धार )ा )ुठार, मैं

दयारविहत और क्रोधी और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने- उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे विबना मारे छोड़ रहा हँू, सो हे विवश्वायिमत्र! )ेवल तुम्हारे प्रेम)से, नहीं तो

इसे इस )ठोर )ुठार से )ाट)र थोडे़ ही परिरश्रम से गुरु से उऋण हो जाता। विवश्वायिमत्रजी ने हृदय में हँस)र )हा - परशुराम )ो हरा ही हरा सूझ रहा है (अथा9त सव9त्र विवजयी होने )े )ारण ये श्री राम-लक्ष्मण )ो भी साधारण क्षवित्रय ही समझ रहे

हैं), वि)न्तु यह फौलाद )ी बनी हुई खाँड़ है, रस )ी खाँड़ नहीं है जो मुँह में लेते ही गल जाए। खेद है, मुविन अब भी बेसमझ बने हुए हैं, इन)े प्रभाव )ो नहीं समझ रहे हैं।

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)हेउ लखन मुविन सीलु तुम्हारा। )ो नहिहR जान विबदिदत संसारा।।

माता विपतविह उरिरन भए नी)ें । गुर रिरनु रहा सोचु बड़ जी)ें ।।

सो जनु हमरेविह माथे )ाढ़ा। दिदन चलिल गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।

अब आविनअ ब्यवहरिरआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।

सुविन )टु बचन )ुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पु)ारा।।

भृगुबर परसु देखावहु मोही। विबप्र विबचारिर बचउँ नृपदोही।।

यिमले न )बहुँ सुभट रन गाढे़। विद्वज देवता घरविह )े बा़ढे़।।

अनुलिचत )विह सब लोग पु)ारे। रघुपवित सयनहिहR लखनु नेवारे।।

लखन उतर आहुवित सरिरस भृगुबर )ोपु )ृसानु।

बढ़त देन्हिख जल सम बचन बोले रघु)ुलभानु।।

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भावाथ9-लक्ष्मणजी ने )हा- हे मुविन! आप)े प्रेम )ो )ौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रलिसद्ध है। आप माता-विपता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए, अब गुरु )ा ऋण रहा, जिजस)ा जी में बड़ा सोच लगा है। वह मानो हमारे ही मत्थे )ाढ़ा था। बहुत दिदन

बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब वि)सी विहसाब )रने वाले )ो बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोल)र दे दँू। लक्ष्मणजी )े )ड़वे वचन सुन)र परशुरामजी

ने )ुठार संभाला। सारी सभा हाय-हाय! )र)े पु)ार उठी। लक्ष्मणजी ने )हा- हे भृगुशे्रष्ठ! आप मुझे फरसा दिदखा रहे हैं? पर हे राजाओं )े शतु्र! मैं ब्राह्मण समझ)र बचा रहा हँू। आप)ो )भी रणधीर बलवान् वीर नहीं यिमले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बडे़ हैं। यह सुन)र 'अनुलिचत है, अनुलिचत है' )ह)र सब लोग पु)ार उठे। तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी )ो रो) दिदया। लक्ष्मणजी )े उत्तर से, जो

आहुवित )े समान थे, परशुरामजी )े क्रोध रूपी अन्हिग्न )ो बढ़ते देख)र रघु)ुल )े सूय9 श्री रामचंद्रजी जल )े समान शांत )रने वाले वचन बोले।

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शब्दाथ9 • भंजविनहारा - भंग )रने वाला

• रिरसाइ - क्रोध )रना

• रिरपु – शतु्र

• विबलगाउ - अलग होना

• अवमाने - अपमान )रना

• लरिर)ाईं - बचपन में

• परसु – फरसा

• )ोही – क्रोधी

• मविहदेव – ब्राह्मण

• विबलो) – देख)र

• अयमय - लोहे )ा बना हुआ

अभ9) – बच्चा

• महाभट - महान योद्धा

• मही – धरती

• )ुठारु – )ुल्हाड़ा

• )ुम्हड़बवितया - बहुत )मजोर

• तज9नी - अंगूठे )े पास )ी अंगुली

• )ुलिलस – )ठोर

• सरोष - क्रोध सविहत

• )ौलिस) – विवश्वायिमत्र

• भानुबंस – सूय9वंश

• नेवारे - मना )रना

• ऊखमय - गने्न से बना हुआ

विनरं)ुश - जिजस पर वि)सी )ा दबाब ना हो।

• असं)ू - शं)ा सविहत

• घालु) - नाश )रने वाला

• )ाल)वलु – मृत

• अबुधु – नासमझ

• हट)ह - मना )रने पर

• अछोभा – शांत

• बधजोगु - मारने योग्य

• अ)रुण - जिजसमे )रुणा ना हो

• गायिधसूनु - गायिध )े पुत्र यानी विवश्वायिमत्र

• )ृसानु - अन्हिग्न

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प्रश्न-उत्तर

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1. पर�ुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिलए कौन-कौन से तक दिदए?

उत्तर- पर�ुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने पर हिनम्नलिलखि�त तक दिदए -1. �में तो �� असाधारण शि�व धुनष साधारण धनुष की भाँहित लगा।

2. श्री राम को तो �े धनुष, नए धनुष के समान लगा।

3.  श्री राम ने इसे तोड़ा न�ीं बस उनके छूते �ी धनुष स्वत: टूट ग�ा।

4. इस धनुष को तोड़ते हुए उन्�ोंने हिकसी लाभ व �ाहिन के हिवष� में न�ीं सोचा था।

5. उन्�ोंने ऐसे अनेक धनुषों को बालपन में �ूँ �ी तोड़ दिद�ा था। इसलिलए ��ी सोचकर उनसे �� का� �ो ग�ा।

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1. परशुराम )े क्रोध )रने पर लक्ष्मण ने धनुष )े टूट जाने )े लिलए )ौन-)ौन से त)9 दिदए?

उत्तर- परशुराम )े क्रोध )रने पर लक्ष्मण ने धनुष )े टूट जाने पर विनम्नलिलन्हिखत त)9 दिदए -1. हमें तो यह असाधारण लिशव धुनष साधारण धनुष )ी भाँवित लगा।

2. श्री राम )ो तो ये धनुष, नए धनुष )े समान लगा।

3.  श्री राम ने इसे तोड़ा नहीं बस उन)े छूते ही धनुष स्वत: टूट गया।

4. इस धनुष )ो तोड़ते हुए उन्होंने वि)सी लाभ व हाविन )े विवषय में नहीं सोचा था।

5. उन्होंने ऐसे अने) धनुषों )ो बालपन में यँू ही तोड़ दिदया था। इसलिलए यही सोच)र उनसे यह )ाय9 हो गया।

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3. लक्ष्मण और परशुराम )े संवाद )ा जो अंश आप)ो सबसे अच्छा लगा उसे अपने शब्दों में संवाद शैली में लिलन्हिखए।

उत्तर- लक्ष्मण - हे मुविन! बचपन में हमने खेल-खेल में ऐसे बहुत से धनुष तोडे़ हैं तब तो आप )भी क्रोयिधत नहीं हुए थे। विफर इस धनुष )े टूटने पर इतना क्रोध क्यों )र रहे हैं?परशुराम - अरे, राजपुत्र! तू )ाल )े वश में आ)र ऐसा बोल रहा है। यह लिशव जी )ा धनुष है।

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4.  परशुराम ने अपने विवषय में सभा में क्या-क्या )हा, विनम्न पद्यांश )े आधार पर लिलन्हिखए –बाल ब्रह्मचारी अवित )ोही। विबस्वविबदिदत क्षवित्रय)ुल द्रोही||भुजबल भूयिम भूप विबनु )ीन्ही। विबपुल बार मविहदेवन्ह दीन्ही||सहसबाहुभुज छेदविनहारा। परसु विबलो)ु महीप)ुमारा||मातु विपतविह जविन सोचबस )रलिस महीसवि)सोर।गभ9न्ह )े अभ9) दलन परसु मोर अवित घोर||

उत्तर-परशुराम ने अपने विवषय में ये )हा वि) वे बाल ब्रह्मचारी हैं और क्रोधी स्वभाव )े हैं। समस्त विवश्व में क्षवित्रय )ुल )े विवद्रोही )े रुप में विवख्यात हैं। वे आगे, बढे़ अभिभमान से अपने विवषय में बताते हुए )हते हैं वि) उन्होंने अने)ों बार पृथ्वी )ो क्षवित्रयों से विवहीन )र इस पृथ्वी )ो ब्राह्मणों )ो दान में दिदया है और अपने हाथ में धारण इस फरसे से सहस्त्रबाहु )े बाहों )ो )ाट डाला है। इसलिलए हे नरेश पुत्र! मेरे इस फरसे )ो भली भाँवित देख ले।राज)ुमार! तू क्यों अपने माता-विपता )ो सोचने पर विववश )र रहा है। मेरे इस फरसे )ी भयान)ता गभ9 में पल रहे लिशशुओं )ो भी नष्ट )र देती है।

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5. लक्ष्मण ने वीर योद्धा )ी क्या-क्या विवशेषताए ँबताई?

उत्तर-लक्ष्मण ने वीर योद्धा )ी विनम्नलिलन्हिखत विवशेषताए ँबताई है-1. वीर पुरुष स्वयं अपनी वीरता )ा बखान नहीं )रते अविपतु वीरता पूण9 )ाय9 स्वयं वीरों )ा बखान )रते हैं।2. वीर पुरुष स्वयं पर )भी अभिभमान नहीं )रते। वीरता )ा व्रत धारण )रने वाले वीर पुरुष धैय9वान और क्षोभरविहत होते हैं।3. वीर पुरुष वि)सी )े विवरुद्ध गलत शब्दों )ा प्रयोग नहीं )रते। अथा9त् दूसरों )ो सदैव समान रुप से आदर व सम्मान देते हैं।4. वीर पुरुष दीन-हीन, ब्राह्मण व गायों, दुब9ल व्यलिXयों पर अपनी वीरता )ा प्रदश9न नहीं )रते हैं। उनसे हारना व उन)ो मारना वीर पुरुषों )े लिलए वीरता )ा प्रदश9न न हो)र पाप )ा भागीदार होना है।5. वीर पुरुषों )ो चाविहए वि) अन्याय )े विवरुद्ध हमेशा विनडर भाव से खडे़ रहे।6. वि)सी )े लल)ारने पर वीर पुरुष )भी पीछे )दम नहीं रखते अथा9त् वह यह नहीं देखते वि) उन)े आगे )ौन है वह विनडरता पूव9) उस)ा जवाब देते हैं।

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6. साहस और शलिX )े साथ विवनम्रता हो तो बेहतर है। इस )थन पर अपने विवचार लिलन्हिखए।

उत्तर-साहस और शलिX ये दो गुण ए) व्यलिX )ो वीर बनाते हैं। यदिद वि)सी व्यलिX में साहस विवद्यमान है तो शलिX स्वयं ही उस)े आचरण में आ जाएगी परन्तु जहाँ त) ए) व्यलिX )ो वीर बनाने में सहाय) गुण होते हैं वहीं दूसरी ओर इन)ी अयिध)ता ए) व्यलिX )ो अभिभमानी व उदं्दड बना देती है। )ारणवश या अ)ारण ही वे इन)ा प्रयोग )रने लगते हैं। परन्तु यदिद विवन्रमता इन गुणों )े साथ आ)र यिमल जाती है तो वह उस व्यलिX )ो शे्रष्ठतम वीर )ी शे्रणी में ला देती है जो साहस और शलिX में अहं)ार )ा समावेश )रती है। विवनम्रता उसमें सदाचार व मधुरता भर देती है,वह वि)सी भी स्थिस्थवित )ो सरलता पूव9) शांत )र स)ती है। जहाँ परशुराम जी साहस व शलिX )ा संगम है। वहीं राम विवनम्रता, साहस व शलिX )ा संगम है। उन)ी विवनम्रता )े आगे परशुराम जी )े अहं)ार )ो भी नतमस्त) होना पड़ा नहीं तो लक्ष्मण जी )े द्वारा परशुराम जी )ो शांत )रना सम्भव नहीं था।

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7. भाव स्पष्ट )ीजिजए –

()) विबहलिस लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी||       पुविन पुविन मोविह देखाव )ुठारू। चहत उड़ावन फँूवि) पहारू||

उत्तर- प्रसंग - प्रस्तुत पंलिXयाँ तुलसीदास द्वारा रलिचत रामचरिरतमानस से ली गई हैं। उX पंलिXयों में लक्ष्मण जी द्वारा परशुराम जी )े बोले हुए अपशब्दों )ा प्रवितउत्तर दिदया गया है।

भाव - भाव यह है वि) लक्ष्मण जी मुस्)राते हुए मधुर वाणी में परशुराम पर वं्यग्य )सते हुए )हते हैं वि) हे मुविन आप अपने अभिभमान )े वश में हैं। मैं इस संसार )ा शे्रष्ठ योद्धा हँू। आप मुझे बार-बार अपना फरसा दिदखा)र डरा रहे हैं। आप)ो देख)र तो ऐसा लगता है मानो फँू) से पहाड़ उड़ाने )ा प्रयास )र रहे हों। अथा9त् जिजस तरह ए) फँू) से पहाड़ नहीं उड़ स)ता उसी प्र)ार मुझे बाल) समझने )ी भूल मत वि)जिजए वि) मैं आप)े इस फरसे )ो देख)र डर जाऊँगा।

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रिरहितक मु�जExसी